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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
दशा
दगघट्ट तिन्नि सत्त व उडुवासासु ण हणंति तं खेत्तं। चउरट्ठाति हणंती जंघद्धे कोवि उ परेणं ॥७८॥ दव्वट्ठवणाऽऽहारे१ विगई२ संथार३ मत्तए४ लोए५। सच्चिते ६ अचित्ते ७ वोसिरणं गहण-धरणाइं॥७९॥ पुव्वाहारोसवण जोग विवड्डीय सत्तिउग्गहणं। संचइय असंचइए दव्वविवड्डी पसत्था उ॥८॥ विगतिं विगतीभीओ विगइगयं जो उ भुंजए भिक्खू। विगई विगयसभावं विगती विगतिं बला नेइ॥८१॥ दकघट्ट त्रीणिसप्त च ऋतुवासेषु न घ्नन्ति तत्क्षेत्रम्। चतुरष्ट इति घन्ति जङ्घार्द्ध कोऽपि तु परेण ॥७८॥ द्रव्यस्थापनाऽऽहारे विकृतिःसंस्तारकमात्रकलोचाः। सचित्ते अचित्ते व्युत्सर्जनं ग्रहण धारणानि ॥७९॥ पूर्वाहारोपशमनं योगविवर्द्धितशक्तितः ग्रहणम् । सञ्चियते असञ्चिते द्रव्यविवृद्धिः प्रशस्ताः तु ॥४०॥ विकृतिविकृतिभीतः(विगतिभीतः)विकृतिगतंयत्तुभुङ्क्ते भिक्षुः। विकृतिः विकृतस्वभावं विकृति विकृति बलान्नयति॥८१॥ जहाँ जो की आधी ऊँचाई तक जल हो वहाँ ऋतुकाल में तीन बार (आना-जाना ६ बार और वर्षाकाल में ७ बार (आना-जाना १४ बार) गमन से क्षेत्र का उपघात नहीं होता है। (जबकि ऋतकाल में) ४ बार (आना-जाना ८ बार और (वर्षाकाल में) आठ बार (आना-जाना १६ बार) गमन से क्षेत्र का उपघात होता है। जहाँ जाँघ से ऊपर जल है वहाँ (ऋतुकाल और वर्षाकाल में) एक बार भी गमन से कोई क्षेत्रमर्यादा का अतिक्रमण करता है।।७८।।
द्रव्यस्थापना में आहार, विकृति, संस्तारक, मात्रक, लोच, सचित्त और अचित्त का परित्याग, ग्रहण, धारण आदि आते हैं।।७९।। _ पूर्व अर्थात् ऋतुकाल-शीत और ग्रीष्म काल में ग्रहण किये गये आहार का यथाशक्ति सामर्थ्य बढ़ाकर त्याग करना चाहिए, (विकृति स्थापना–सञ्चयिक और असञ्चयिक दो प्रकार की है, प्रशस्त कारणों से गृहीत द्रव्य विवृद्धिकृत है।।८०।।
विविधगति (संसार) से भयभीत या विगति अर्थात् कुगति से भयभीत जो श्रमण विकृति (विकार) जनित वस्तु और विकृति को प्राप्त भोजन-पान आदि ग्रहण करता