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दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति मूल- छाया-अनुवाद
असिवे ओमोयरिए राया दुट्ठे भए व गेलण्णे । एएहिं कारणेहिं अइकंते होति निग्गमणं ॥ ७४ ॥ उभओवि अद्धजोयण सअद्धकोसं च तं हवति खेत्तं । होइ सकोसं जोयण, मोत्तूण कारणज्जाए ॥७५॥ उड्डूमहे तिरियम्मि य, सकोसयं सव्वतो हवति खेत्तं । इंदपयमाइएसुं छद्दिसि इयरेसु चउ पंच ॥ ७६ ॥ तिणि दुवे एक्का वा वाघाएणं दिसा हवइ खेत्तं । उज्जाणाओ परेणं छिण्णमंडबं तु अखेत्तं ॥७७॥
अशिवेऽवमौदर्ये राजद्विष्टे भये ग्लानत्वे वा । एतैः कारणैः अतिक्रान्ते भवति निर्गमनम् ॥७४॥ उभयतोऽपि अर्द्धयोजनं सार्द्धक्रोशं च तद् भवति क्षेत्रम् । भवति सक्रोशं योजनं, मुक्त्वा कारणतया ॥७५॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च, सक्रोशं सर्वतो भवति क्षेत्रम् । इन्द्रपदमादिकेषु षदिक्षु इतरेसु चत्वारिपञ्च ॥७६॥ त्रिस्त्रः द्वे एका वा व्याघातेन दिशा भवति क्षेत्रम् । उद्यानात् परेण छिन्नमण्डपं तु अक्षेत्रम् ॥७७॥
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अमङ्गल होने पर, अवमौदर्य व्रत धारण करने पर, राजा के दुष्ट ( होने पर, भय ( उपस्थित होने पर तथा रोग होने पर — इन कारणों से चातुर्मास व्यतीत हो जाने के बाद विहार होता है ।। ७४ ।।
चारों तरफ ढाई कोस (की निर्धारित सीमा तक क्षेत्र होता है, आगमन और प्रत्यागमन के संयोग से) पाँच कोस क्षेत्र होता है। कारण होने पर क्षेत्र की मर्यादा से मुक्त होकर भी गमन हो सकता है ।। ७५ ।।
ऊपर-नीचे और तिरछे एक कोस तक चारों ओर क्षेत्र होता है । ( पर्वत पर ऊपर और नीचे भी ग्राम होता है अतः पर्वत पर मध्य स्थित ग्राम की दृष्टि से ) छ: दिशायें होती हैं। अन्य स्थितियों में क्षेत्र के चार, पाँच, तीन, दो अथवा एक दिशा व्याघात से होती है । उपवन आदि के परे जिन ग्रामों और नगरों के सभी दिशाओं में ग्राम और नगर नहीं होते हैं ये छिन्नमण्डप अक्षेत्र होते है ।।७६-७७ ।।