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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन जइ अत्थि पयविहारो चउपडिवयम्मि होइ गंतव्वं । अहवावि अणितस्सा आरोवणपुव्वनिहिट्ठा ॥७०॥ काईयभूमी संथारए य संसत्त दुल्लहे भिक्खे। एएहिं कारणेहिं अपत्ते होइ निग्गमणं ॥७१॥ राया सप्पे कुंथू अगणि गिलाणे य थंडिलस्सऽसति। एएहिं कारणेहिं अपत्ते होइ निग्गमणं॥७२॥ वासं वन ओरमई पंथा वा दुग्गमा सचिक्खल्ला। एएहिं कारणेहिं अइक्कंते होइ निग्गमणं॥७३॥
यद्यस्ति पदविहारोचतुःप्रतिपत्सु भवंति गन्तव्यम् । अथवाऽपि अगच्छन्तः आरोपणा पूर्वनिर्दिष्टा ॥७०॥ कायिकभूमिः संस्तारकश्च संसक्तं दुर्लभाभिक्षा । एतैः कारणैः अप्राप्ते भवति निर्गमनम् ॥७१॥ राजा सर्पः कुन्थु अग्निः ग्लाने च स्थण्डिलस्यासति। एभिः कारणैः अप्राप्ते भवति निर्गमनम् ॥७२॥ वर्षा च न उपरमति पंथानो वा दुर्गमाः सकर्दमाः । एतैः कारणैः अतिक्रांते भवति निर्गमनम् ॥७३॥
यदि (वर्षावास कर रहे साधु को चातुर्मास के मध्य) सकारणपद विहार करना पड़े तो चार पर्वतिथियों को ही प्रस्थान करना चाहिए अथवा न जाने का भी (कुछ ने) पहले निर्देश किया है।।७०।।
जीवों से युक्त भूमि, संस्तारक भी जीवों से युक्त हो, भिक्षा दुर्लभ हो, इन कारणों से चातुर्मास पूर्ण न होने पर भी विहार करना चाहिए।।७१।। ___ राजा, सर्प, कुंथु (त्रीन्द्रिय जीव-विशेष), अग्नि से भय, रुग्ण होने और स्थण्डिल (उच्चार-प्रस्रवण के योग्य) भूमि न रहने- इन कारणों से चातुर्मास पूर्ण न होने पर भी विहार करना चाहिए।।७२।।
अथवा वर्षा न रुके, मार्ग दुर्गम और पङ्कयुक्त हो; इन कारणों से चातुर्मास व्यतीत होने के पश्चात् विहार करना चाहिए।।७३।।