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१६६ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
भिक्खूणं उवहाणे उवासगाणं च वन्निया सुत्ते । गणकोवाइ विवेगो सब्भितरबाहिरो दुविहो॥४८॥ सोइंदियमादीआ पदिसंलीणया चउत्थिया दुविहा । अट्ठगुणसमग्गस्स य एगविहारिस्स पंचमिया ॥४९॥ दढसम्मत्तचरित्ते मेधावि बहुस्सुए य अयले य। अरइरइसहे दविए खंता भयभेरवाणं च॥५०॥ परिचिअकालामंतणखामणतवसंजमे असंघयणे । भत्तो बहिनिक्खेवे आवन्ने लाभगमणे य॥५१॥
॥९॥ पर्युषणाकल्पनियुक्तिः।। भिक्षूणामुपधाने उपासकानां च वर्णिताः सूत्रे । गणकोपादिः विवेकः साभ्यन्तरबाह्यो द्विविधः ॥४८॥ श्रोत्रेन्द्रियादयः प्रतिसंलीनता चातुर्थिका द्विविधा । अष्टगुणसमग्रस्य च एकलविहारिणः पञ्चमिका ॥४९॥ दृढ़सम्यक्त्वचारित्रयोः मेधावी बहुश्रुतश्चाचलश्च । अरतिरतिसहः द्रव्ये क्षमिता भयभैरवाणां च ॥५०॥ परिचितः कालामन्त्रणक्षमणतपसंयमे च संहनने।
भक्तः बहिर्निक्षेपः आपन्ने च लाभगमने च ॥५१॥ सूत्र (ग्रन्थों-आगमों) में भिक्षुओं और श्रावकों के तप में (क्रमश: बारह और ग्यारह) प्रतिमायें वर्णित हैं। विवेक प्रतिमा अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकार की है- क्रोधादि (अभ्यन्तर विवेक प्रतिमा है) और गण (शरीर,भक्त-पान बाह्य विवेक प्रतिमा है)।।४८।।
चौथी प्रतिसंलीनता प्रतिमा (इन्द्रिय और नोइन्द्रिय) दो प्रकार की होती है। (इन्द्रिय प्रतिसंलीनता प्रतिमा) श्रोत्रेन्द्रिय आदि (पाँच प्रकार की) होती है। पाँचवीं एकलविहारी प्रतिमा (आचार सम्पदादि) आठ गुणों से युक्त भिक्षु की होती है।।४९।। ___ सम्यक्त्व और चारित्र में दृढ़ (नि:शङ्कित), मेधावी, बहुश्रुत (दसपूर्वो का ज्ञाता) और अचल (अर्थात् ज्ञानादि में स्थिर चित्त) द्रव्य में अरति-प्रतिलोम उपसर्ग और रति-अनुलोम उपसर्ग, भय (अकस्मात् भय) और भैरव-सिंहादि के भय को सहने वाले होते हैं।।५०।।
श्रमण को अपने परिकर्मों, (प्रत्येक क्रिया के योग्य) समय, गण को आमन्त्रित कर क्षमापणा देने, अधिकारी और संहनन के अनुसार तप और संयम का निर्देश देने,