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१६४ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
तत्थहिगारो तु सुहं नाउं आइक्खिआव गिहिं धम्मं । साहूणं च तव संजमंमि , संवेगकरणाणि॥४१॥ जइ ता गिहिणो वि य उज्जमंति नणु साहुणावि कायव्वं। सव्वत्थामो तवसंजमंमि इअ. सुद्धनाऊणं॥४२॥ दसणवयसामाइयपोसहपडिमा अबंभसच्चित्ते। आरंभपेसउहिट्ठवज्जए समणभूए अ॥४३॥
।। उवासगपडिमा निज्जुत्ती समत्ता ।।६।।
तत्राधिकारस्तु सुखं ज्ञातुं आख्यायितः च गृहिणः धर्मः । साधूनां च तपःसंयमयोः संवेगकरणानि ॥४१॥ यदि ते गृहिणः अपि च उद्यमन्ति ननु साधुनापि कर्त्तव्यम्। सर्वस्थाम तपःसंयमयोः इति शुद्धज्ञात्वा ॥४२॥ दर्शनव्रतसामायिकप्रोषधप्रतिमा अब्रह्मसचित्तौ। आरम्भप्रेष्योद्दिष्टवर्जने श्रमणभूता च ॥४३॥
प्रतिमायें हैं।) ऊपर निर्दिष्ट भिक्षु और उपासक प्रतिमाओं का प्ररूपण करूँगा।।४०।।
(भिक्षुप्रतिमा और उपासकप्रतिमा का) सरलता से ज्ञान करने के लिए इस अधिकार (उपासक प्रतिमा) को गृही धर्म आख्यायित किया गया है। तप और संयम साधुओं के मोक्ष के करण-साधन हैं।।४१।। ___ यदि वे गृहस्थ भी (उपासक प्रतिमाओं) के पालन का प्रयत्न करते हैं तो निश्चयपूर्वक श्रमण को भी इसे भली प्रकार जानकर सर्वथा तप-संयम में प्रयत्न करना चाहिए।।४२।।
दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, नियमप्रतिमा, अब्रह्मचर्यत्याग, सचित्तत्याग, आरम्भत्याग, प्रेष्यत्याग, उद्दिष्टत्याग और श्रमणभूत प्रतिमा (ये ग्यारह प्रतिमायें हैं)।।४३।।