________________
१६३
दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद तो ते सावग तम्हा उवासगा तेसु होंति भत्तिगया। अविसेसंमि विसेसो समणेसु पहाणया भणिया ॥३७॥ कामं तु निरवसेसं सव्वं जो कुणइ तेण होइ कयं। तमि ठिताओ समणा नोवासगा सावगा गिहिणो॥३८॥ दव्वंमि सचित्तादी संजमपडिमा तहेव जिणपडिमा। भावो संताण गुणाण धारणा जा जहिं भणिआ॥३९॥ सा दुविहा छबिगुणा भिक्खूणं उवासगाणं एगूणा। उवरि भणिया भिक्खूणुवासगाणं तु वोच्छामि ॥४०॥
ततः ते श्रावकाः तस्मादुपासकाः तेषु भवन्ति भक्तिगताः। अविशेषे विशेषः श्रमणेषु प्रधानता भणिता ॥३७॥ कामं तु निरवशेषं सर्वं यत्करोति तेन भवति कृतम्। तस्मिन् स्थिताः श्रमणाः न उपासकाः श्रावकाः गृहिणः॥३८॥ द्रव्ये सचित्तादयः संयमप्रतिमा तथैव जिनप्रतिमा। भावः सन् गुणानां धारणा या यत्र भणिता॥३९॥ सा द्विविधा षद्विगुणाः भिक्षणामुपासकानामेकोना। उपरि भणिता भिक्षूणामुपासकानां तु वक्ष्यामि ॥४०॥ इस कारण वे श्रावक उन (धर्मों) में भक्तियुक्त होने से उपासक होते हैं। सामान्यत: श्रमणों के प्रति (भक्ति की) विशेष प्रधानता के कारण गृही ही उपासक कहे गये हैं।।३७।।
जो कार्य को सम्पूर्णता से करता है, उसी के द्वारा वह कृत माना जाता है। केवलज्ञानी के रूप में विद्यमान होने पर वे श्रमण उपासक नहीं होते हैं, इसलिए गृही ही श्रावक होते हैं।।३८।।
(प्रतिमा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप से चार प्रकार की होती है।) द्रव्य प्रतिमा सचित्त (अचित्त, मिश्र) आदि रूप। (संन्यास की इच्छा वाले गृहस्थ का द्रव्यचिह्न) संयम प्रतिमा है, उसी प्रकार जिन प्रतिमा है। प्रतिमा (विशेष) के उपदिष्ट गुणों को धारण करना भाव प्रतिमा है।।३९।।
वह (प्रतिमा) दो प्रकार की होती है- (भिक्षु प्रतिमा और उपासक प्रतिमा), भिक्षुओं की छ: की दोगुनी (अर्थात् बारह) और उपासकों की एक कम (अर्थात् ग्यारह