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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन छट्ठट्ठमपुव्वेसुं आउवसग्गोत्ति सव्वजुत्तिकओ। पयअत्थविसोहिकरो दिन्तो आसायणा तम्हा ॥१८॥ मिच्छा पडिवत्तीए जे भावा जत्थ होंति सब्भूआ। तेसिं तु वितह पडिवज्जणाए आसायणा तम्हा ॥१९॥ न करेइ दुक्खमोक्खं उज्जममाणोवि संजमतवेसुं। तम्हा अत्तुक्करिसो वज्जेअव्वो पयत्तेणं ॥२०॥ जाणि भणिआणि सुत्ते ताणि जो कुणइ अकारणज्जाए। सो खलु भारियकम्मो न गणेइ गुरुं गुरुवाणे॥२१॥ षष्ठाष्टमपूर्वेषु आङ्-उपसर्ग इति सर्वयुक्तिकृतः। पदार्थविशोधिकरः ददद् आशातना तस्मात् ॥१८॥ मिथ्या प्रतिपत्त्या ये भावा यत्र भवन्ति सद्भूताः। तेषां तु वितथ प्रतिपादनया आशातना तस्मात् ॥१९॥ न करोति दुःखमोक्ष मुंद्यममानोऽपि संयमतपस्सु । तस्मात् आत्मोकर्षों वर्जयितव्यः प्रयत्नेन ॥२०॥ यानि भणितानि सूत्रे तानि यः करोति अकारणतया।
स खलु भारितकर्मा न गणयति गुरुं गुरुस्थाने ॥२१॥ षष्ठ पूर्व (सत्यप्रवाद के अक्षर प्राभृत) में, अष्टमपूर्व (कर्मवाद के अष्टम महानिमित्त के स्वर-चिन्ता में) उपसर्ग वर्णित है। यह (उपसर्ग) सभी योगों और पदार्थ को विशोधि दोष से युक्त करने वाला है, उससे अकस्मात् आशातना होती है।।१८।। __जो भाव (तथ्य) जिस रूप में विद्यमान होते हैं उनके विषय में असत्य कथन करने से मिथ्याप्रतिपादन आशातना होती है।।१९।।
तप और संयम में प्रयत्नशील साधकों के विषय में भी दु:खविमुक्ति के लिए (प्रयत्न) नहीं कर रहा है, (इस कथन द्वारा) अपनी श्रेष्ठता का प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए।।२०।।
जो (गुरु-आशातनायें) सूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध) में उपदिष्ट हैं, उनका जो कारण के बिना (भय की स्थिति या जङ्गल आदि के अतिरिक्त) आचरण करता है, जो गुरु और