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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद . दसणनाणचरित्तं तवो य विणओ अ हुंति गुरुमूले। विणओ गुरुमूलेत्ति अ गुरूणं आसायणा तम्हा ॥२२॥ जाइं भणिआई सुत्ते ताइं जो कुणइ कारणज्जाए। सो न हु भारियकम्मो नु गणेइ गुरू गुरुट्ठाणे ॥२३॥ सो गुरुमासायंतो दंसणणाणचरणेसु सयमेव । सीयति कत्तो आराहणा से तो ताणि वज्जेज्जा ॥२४॥
आसायणनिज्जुत्ती सम्मत्ता ।।३।।
दर्शनज्ञानचारित्रं तपश्च विनयश्च भवन्ति गुरुमूले। विनयः गुरुमूलमिति च गुरूणामाशातना तस्मात् ॥२२॥ यानि भणितानि सूत्रे तानि यः करोति कारणतया । स न खलु भारितकर्म गणयति गुरुं गुरुस्थाने ॥२३॥ सो गुरुमाशातयन् दर्शनज्ञानचरणेषु स्वयमेव। सीदति कुतः आराधना स तदा तानि वर्जयेत् ॥२४॥
गुरुस्थान के प्रति (अभ्युत्थान, पादप्रमार्जन, आहार आदि) नहीं करता वह भारितकर्मा जीव है।।२१।।
गुरु के चरणों (सानिध्य) में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय उत्पन्न होते हैं। गुरु का मूल विनय है, अतः उस (गुरु के प्रति विनय भाव दर्शित न करने से) गुरु की आशातना होती है।।२२।।
जो गुरु को गुरुस्थान पर मानता है, (गुरु आदि के प्रति) जो आशातनायें सूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध) में कही गई हैं उनका सकारण ही आचरण करता है, वह जीव भारितकर्मा नहीं होता है।।२३।।।
गुरु की आशातना करने वाले का दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वयं ही शिथिल हो जाता है, उसकी आराधना कैसे हो सकती है, अतः उनका गुरु की आशातनाओं का त्याग करना चाहिए।।२४।।