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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद . १५७ ।।३।। तृतीयाशातनाध्ययननियुक्तिः ।। आसायणाओ दुविहा मिच्छा पडिवज्जणा य लाभे अ। लाभे छक्कं तं पुणं इट्ठमणिटुं दुहेक्केक्कं ॥१५॥ साहू तेणे ओग्गह कंतारविआल विसममुहवाही । जे लद्धा ते ताणं भणंति आसायणा उ जगे॥१६॥ दव्वं माणुम्माणं हीणाहिअंजंमि खेत्ते जं कालं । एमेव छव्विहंमि भावे . पगयं तु भावेण ॥१७॥
आशातनास्तु द्विविधाः मिथ्याप्रतिपादनाच लाभश्च। लाभः षट्कः सः पुनरिष्टमनिष्टं द्विधैकैकम्॥१५॥ साधोःस्तेनावग्रहकान्तारविकाल विषममुखोपाधिः। ये लब्धास्ते तेषां कथयन्ति आशातनास्तु जगति ॥१६॥ द्रव्यं मानोन्मानं हीनाधिकं यस्मिन् क्षेत्रे यत्कालम् । एवमेव षड्विधो भावः प्रकृतं तु भावेन ॥१७॥
आशातनायें दो प्रकार (की होती हैं)- मिथ्या प्रतिपादन आशातना और लाभ आशातना। लाभ आशातनायें (नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से) छ: प्रकार की होती हैं, पुनः ये आशातनायें इष्ट और अनिष्ट दो प्रकार की होती हैं।।१५।।
संसार में (चोरों द्वारा हरण की गई साधु की उपाधियों का पुन:) ग्रहण (अनिष्ट) और शुद्ध उपधि का ग्रहण इष्ट द्रव्याशातना है, क्षेत्र दृष्टि से (सचिंत्तादि का) अरण्य (आदि) में प्राप्ति अनिष्ट और ग्राम आदि में प्राप्ति इष्ट क्षेत्राशातना है काल की दृष्टि से विकाल (दुर्भिक्ष) में प्राप्ति अनिष्ट और सुभिक्ष में प्राप्ति इष्ट आशातना हैं।।१६।।
(मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना इष्ट और अनिष्ट दो प्रकार की इस रूप में भी होती है-) (सम्यक्) या न्यूनाधिक परिमाण में गृहीत और प्रदत्त द्रव्य की दृष्टि से जिस क्षेत्र और जिस काल में (साधु को प्राप्त हो)। भाव दृष्टि से मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना के छ: प्रकार होते हैं।।१७।।