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श्रीदशाश्रुतस्कन्थनियुक्तिः ।।१।।प्रथमासमाधिस्थानाध्ययननियुक्तिः।।। वंदामि भहबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं। सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे॥१॥ आउ विवागज्झयणाणि भावओ दव्वओ उ वत्थदसा। दसआओ विवागदसा वाससयाओ दसहच्छेत्ता ॥२॥ बाला मंदा किड्डा बला य पण्णा य हायणिपवंचा। पन्भारमुम्मुही सयणी नामेहि य लक्खणेहिं दसा ॥३॥
वन्दे भद्रबाहुं प्राचीनं चरमसकलश्रुतज्ञानिनम्। सूत्रस्य कारकं ऋषिं दशासु कल्पे च व्यवहारे ॥१॥ आयुर्विपाकाध्ययनानि भावतो द्रव्यतो तु व्यस्तदशा। दशाः विपाकदशाः वर्षशतानि दशधा छित्वा ॥२॥ बाला मन्दा क्रीडा बला च प्रज्ञा च हायनी प्रपञ्चा । प्राग्भारमुन्मुखी शायनी (स्वापनी)नामभिश्च लक्षणैर्दश॥३॥ .
__ (हिन्दी अनुवाद) मैं सम्पूर्ण श्रुतों (चौदह पूर्वो सहित समस्त आगमों) के अन्तिम ज्ञाता, आचारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), कल्प और व्यवहारसूत्र के कर्ता प्राचीनगोत्रीय ऋषि भद्रबाहु को वन्दन करता हूँ।।१।। ___ भाव (निक्षेप की अपेक्षा) से दशा का आयुविपाक-जीवन की विविध अवस्थायें और अध्ययन शास्त्र के विभाग, द्रव्य की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ (अर्थ है)। आयु-विपाक की दृष्टि से सौ वर्ष की आयु को दस से विभक्त कर (स्व-स्व) लक्षणों के आधार पर नामयुक्त दस अवस्थायें होती हैं- बाला, मन्दा, क्रीडा, बला, प्रज्ञा, हायनी, प्रपञ्चा, प्राग्भारा, मुन्मुखी और शायनी (स्वापनी) ।।२-३।।