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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
दस दशाओं में विभक्त होने के कारण 'आयारदसा' के नाम से भी प्रसिद्ध इस ग्रन्थ का परिमाण १२५६ ग्रन्थान है। यह मुख्यतया गद्य में निबद्ध है। वर्तमान कल्पसूत्र इसकी आठवीं दशा का अंश रहा है, ऐसी मान्यता है। ___ इस छेदसूत्र के दशाओं की विषय-वस्तु परस्पर सम्बद्ध है और दसाओं का क्रम भी तार्किक ढङ्ग से योजित है। विद्वान् प्रथम दशा के 'असमाधि' नामकरण का कारण यह मानते हैं कि शीर्षक के निषेधात्मक 'अ' को हटा देने से (समाधि) का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह शीर्षक एक साथ समाधि और असमाधि दोनों का बोध कराता है। ___ आगमों में उत्तम छेदसूत्र और छेदसूत्रों में प्रमुख दशाश्रुतस्कन्धसूत्र पर नियुक्ति की रचना स्वाभाविक ही थी। आज उपलब्ध नियुक्तियों में इसका परिमाण लघुतम है। इसका वर्गीकरण ‘दशा' में न हाकेर 'अध्ययन' में है। अष्टम दशा (कल्पसूत्र) की नियुक्ति भी इसमें विद्यमान है। प्रस्तुत नियुक्ति में आठवीं दशा पर नियुक्ति की गयी है। प्रो०सागरमल जैन ने व्यक्तिगत वार्तालाप में मत व्यक्त किया कि दशाश्रुतस्कन्ध से आठवीं दशा को वलभी के राजा ध्रुवसेन के समय पृथक् कर और उसमें जिनचरित्र और स्थविरावली को जोड़कर कल्पसूत्र का वर्तमान स्वरूप प्रदान किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि आठवीं दशा के निकालने के पूर्व नियुक्ति की रचना हो चुकी थी। आठवीं दशा की नियुक्ति में जिनचारित्र और स्थविरावली का उल्लेख नहीं होने से भी यह स्पष्ट होता है। इसकी गाथा सं० १५४, १४४, १४१
और ९९ उल्लिखित है परन्तु वास्तविक गाथा संख्या १४१ ही है शेष उल्लेख पूरी तरह निराधार एवं भ्रामक हैं। ___ आधुनिक विद्वानों द्वारा आचार्य भद्रबाहु प्रथम (ई०पूर्व ३-४ शताब्दी), शिवभूति शिष्य काश्यपगोत्रीय, आर्यभद्रगुप्त, आर्यविष्णु के प्रशिष्य आर्यकालक के. शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र और भद्रबाह 'द्वितीय' या 'नैमित्तिक, नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार किये जाते हैं। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् एम०विण्टरनित्स और प्रो० कापडिया, प्रथम भद्रबाहु को तथा ल्यूमान, मुनि पुण्यविजय, आचार्य हस्तीमल जी नैमित्तिक भद्रबाहु को, तो प्रो०सागरमल जैन ने गौतमगोत्रीय आर्यभद्र को नियुक्तिकार के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में तर्क दिया है। समणी कुसुमप्रज्ञा की मान्यता है कि नियुक्तियों के कर्ता आचार्य भद्रबाहु 'प्रथम' थे परन्तु द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों में परिवर्धन किया। अपनी इस मान्यता के पक्ष में उन्होंने प्रमाण दिया है कि दशवकालिक, आवश्यक आदि की नियुक्तियों में चूर्णि एवं टीका की गाथा संख्या में काफी अन्तर है। (व्य०भा०, भूमिका, पृ०३८)।