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उपसंहार
'छिद्' धातु से काटने या भेदन अर्थ में घञ् पूर्वक निष्पन्न 'छेद' शब्द जैन परम्परा में प्रायश्चित्त विशेष के अभिप्राय में ग्रहण किया गया है। छेद प्रायश्चित्त के भागी श्रमण की दीक्षा के काल में दण्ड के अनुसार उच्छेद कर दिया जाता है। जैन परम्परा आचार के सम्यक् पालन पर अतिशय बल देती है। आचार की दृष्टि से क्या करणीय है और क्या नहीं इस विधि-निषेध पक्ष के सूक्ष्मातिसूक्ष्म ज्ञान के लिए जिन जैनागम ग्रन्थों में इस विषय की विशेष प्ररूपणा की गई है उनकी छेदसूत्र संज्ञा दी गई है। इनमें प्रायश्चित्त का भी विधान है।
प्रायश्चित्त विधि का निरुपण करने के कारण छेदसूत्र उतम कहा गया हैछेयसुयमुत्तमसुयं। 'इसकी उत्तमता का कारण व्यवहारभाष्य में निरूपित है'चारित्र में स्खलना होने पर या दोष लगने पर छेदसत्रों के आधार पर विशद्धि होती है। अत: पूर्वगत अर्थ को छोड़कर अर्थ की दृष्टि से अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र बलवत्त है। (गाथा १८२९, लाडनूं १९९६)। गणाधिपति तुलसी ने 'छेयसुत्त' का संस्कृत 'छेक सूत्र' मानकर इसका कल्याणश्रुत या उत्तमश्रुत अर्थ माना है। (व्य०भा०, भूमिका, लाडनूं) __इनकी संख्या और इस वर्ग में समाविष्ट ग्रन्थों के विषय में यद्यपि मतभेद रहा है परन्तु वर्तमान में छेदसूत्र में- दशाभुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ और जीतकल्प- ये छ: छेदसूत्र समाविष्ट हैं। इनमें भी दशाश्रुतस्कन्य को मुख्य ग्रन्थ माना गया है-इमं पुण छेयसुत्तपमुहभूतं (द०१०चू०, पृ० ३-४) ___ यह सर्वमान्य है कि अधिकांश छेदसूत्र पूर्वो से निर्मूढ हैं। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने इसे नवम पूर्व प्रत्याख्यान की तृतीय आचार वस्तु से निर्यहित किया है। (आचा०नि० २९९, व्य०भा०, ३१७३)। नि!हण का कारण बताते हुए कहा गया है कि नवम पूर्व सागर की भाँति विशाल है, उसकी सतत स्मृति में बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो जाता है (व्य०भा०,७३७)। भद्रबाहु ने आयु बल, धारणाबल, आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार का नि!हण किया किन्तु आहार, उपधि, कीर्ति या प्रशंसा आदि के लिए नहीं। (द०अ००, पृ०३)।