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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त
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दोसं दटुं अभिग्गहो गहितो- “ण मे कोहो माणो वा कायव्वो।।३१९४।।३१९५। ।३१९६।।
तस्स घरे सयसहस्सपागं तेल्लमत्थि, तं च साहुणा वणसंरोहणत्थं ओसढं मग्गियं।
ताए य दासचेडी आणत्ता, “आणेहि' त्ति। ताए आणंतीए सहतेल्लेण एगं भायणं भिण्णं। एवं तिण्णि भायणाणि भिण्णाणि। ण य सा रुट्ठा। तिसु य सयसहस्सेसु विणढेसु चउत्थवाराए अप्पणा उठेऊणं दिण्णं।
जइ ताए कोइपुरस्सरो मेरुसरिसो माणे णिज्जितो तो साहुणा सुटुतरं णिहंतव्वो इति।।३१९७।।
- नि० भा०चू०। कथा-सारांश
क्षितिप्रतिष्ठित नगर में जितशत्रु राजा था, धारिणी देवी उसकी रानी और सुबुद्धि उसका मन्त्री था। वहाँ धन नामक श्रेष्ठी था, भट्टा उसकी पुत्री थी। माता-पिता ने सब परिजनों से कह दिया था, भट्टा जो भी करे, उसे रोका न जाय, इसलिए उसका नाम 'अच्चंकारिय' भट्टा पड़ा। वह अत्यन्त रूपवती थी। बहुत से वणिक्परिवारों ने उसका वरण करना चाहा। धनश्रेष्ठि उनसे कहता था कि जो इसे इच्छानुसार कार्य करने से मना नहीं करेगा उसे ही यह दी जायगी, इसप्रकार वह वरण करने वालों का प्रस्ताव अस्वीकार कर देता।
अन्त में एक मन्त्री ने भट्टा का वरण किया। धन ने उससे कहा- यदि अपराध करने पर भी मना नहीं करोगे, तब दूंगा। मन्त्री द्वारा शर्त मान लेने पर भट्टा उसे प्रदान कर दी गई। कुछ भी करने पर वह उसे रोकता नहीं था। __वह अमात्य राजकार्यवश विलम्ब से घर लौटता था, इससे भट्टा प्रतिदिन रुष्ट होती थी। तब वह समय से घर आने लगा। राजा को दूसरों से ज्ञात हुआ कि यह पत्नी की आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं करता है। एक दिन आवश्यक कार्यवश राजा ने रोक लिया। अनिच्छा होते हुए भी उसे रुकना पड़ा। अत्यन्त रुष्ट हो भट्टा ने दरवाजा बन्द कर लिया। घर आकर अमात्य ने दरवाजा खुलवाने का बहुत प्रयास किया फिर भी जब भट्टा ने नहीं खोला तब मन्त्री ने कहा- तुम ही स्वामिनी बनो, मैं जाता हूँ।
रुष्ट हो वह द्वार खोलकर पिता के घर की ओर चल पड़ी। सब अलङ्कारों से विभूषित होने के कारण चोरों ने रास्ते में पकड़कर उसके सब अलङ्कार लूट लिये
और उसे सेनापति के पास लाये। सेनापति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा पर वह उसे नहीं चाहती थी। उसने बलपवूक भोग नहीं किया, और उसे जलूक वैद्य के हाथ