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J८
छहढ़ाला
निकल परमात्मा का लक्षण एवं आनन्द का उपाय ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल, वर्जित सिद्ध महन्ता । ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता ।। बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हजै । परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै ।।६।।
शब्दार्थ-ज्ञानशरीरी = ज्ञान ही जिसका शरीर है । त्रिविध = तीन प्रकार । कर्ममल = कर्मरूपी मैल । वर्जित = रहित । महंता = महान्
आत्मा । निकल = शरीर रहित । अमल = मल रहित । परमातम = उत्कृष्ट जीव । भो» = भोगते हैं । शर्म = सुख । अनन्ता = अविनाशी । बहिरातमता = मिथ्या दृष्टिपना । हेय = छोड़ने योग्य । तजि = छोड़ो । हूजै = बनो । ध्यान = ध्यान करो ।
अर्थ-ज्ञान ही जिनका शरीर हैं, तीन प्रकार के कर्ममल से रहित सिद्ध भगवान निकल परमात्मा कहलाते हैं । जो अनन्त काल तक सुख भोगते हैं । बहिरात्मपने ( मिश्यादृष्टिपने ) को छोड़ने योग्य जान छोड़ो और अन्तरात्मा बनो । परमात्मा का हमेशा ध्यान करो, जिससे सच्चे सुख की प्राप्ति हो।
प्रश्न १-निकल परमात्मा कौन है ?
उत्तर-तीन प्रकार के कर्मों से रहित सिद्ध भगवान् निकल परमात्मा हैं । नि यानी रहित, कल यानी शरीर = शरीर रहित सिद्ध निकल परमात्मा हैं ।
प्रश्न २–तीन प्रकार के कर्म कौन से हैं ? उत्तर- (१) द्रव्यकर्म----ज्ञानावरणादि आठ कर्म ।
(२) भावकर्म-राग-द्वेष, क्रोधादि । (३) नोकर्म-६ पर्याप्ति व३ शरीरयोग्य कर्म परमाण ।
ये तीन प्रकार के कर्म हैं। प्रश्न ३-भाव कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर—राग-द्वेष मोहरूप खोटे परिणामों को भावकर्म कहते हैं । प्रश्न ४–नोकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-औदारिक आदि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण नोकर्म कहलाता है ।