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पतुर्विशति स्तोत्र
है उसे प्रत्यक्षी करने को अतीन्द्रिय ज्ञान ही समर्थ है । इन्द्रियो से जन्य क्षायोपशमिक ज्ञान क्षण-क्षण में परिवर्तित होता हुआ स्वयं क्षोभ को प्राप्त होता रहता है । क्रम और अक्रम रूप से परिवर्तित होता हुआ अपने अस्तित्व रक्षण के भय के बोझ से बोझल हो रहा है । अतः संकल्प-विकल्पों से उद्वेलित उस झान द्वारा तुम नहीं देखे जा सकते हो । स्थिर जल में ही अपना प्रतिबिम्ब स्थिर दृष्टिगत होता है इसी प्रकार भगवान आत्मा के स्थायी, सर्व से भिन्न एक ज्ञायक स्वरूप को क्षायिक ज्ञान ही विषय कर सकता है । हम जैसे छद्मस्थों का इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं । वस्तुतः बौद्धादि सिद्धान्तवादी इन्द्रियज्ञान को ही प्रत्यक्ष स्वीकारते हैं उनके अतीन्द्रिय आत्मस्वरूप व्यवस्था नहीं हो सकती । आपका ज्ञाता प्रत्यक्ष ज्ञानी सर्वज्ञ ही होना चाहिए ।। १८ ॥
केवलज्ञान रूपी सम्पत्ति अनन्त और अक्षय है । निरन्तर उदीयमान प्रकाशपुञ्ज ज्योति सम्पन्न एवं अजेय पराक्रम सम्पन्न है । वह स्व तत्त्व प्रतिपत्ति अवस्थित है । क्षणक्षयी क्षायोपशमिकज्ञान धारियों के ज्ञापन कराने में आप ही एक मात्र साक्षी हैं-गवाह हैं । अभिप्राय यह है कि अखण्ड केवल ज्ञान ज्योति सम्पन्न अनन्तशक्तिधारी आत्मा को दर्शाने वाला आप द्वारा प्रणीत आगम ही है | आपके प्रति अकाट्य श्रद्धालु ही उसके माध्यम से उसे अवगत कर अपने स्वयं के स्वरूप को प्रकट कर सकता है |॥ १९ ॥
हे प्रभो ! जो अपने निज प्रज्वलित कृत्यों के द्वारा सम्पूर्ण निज शक्तियों को समग्रता से अर्जन करता हुआ, आतिशायी धर्मों-स्वभाव को प्रकाशित करता हुआ आपके स्वरूप की विवेचना करता है वही आपको स्पष्ट देख सकता है । आप सदा पर पदार्थ के स्पर्श से पराङ्मुख रहते हो, यह प्रत्यक्ष प्रतिभासित होता है | यहाँ अभिप्राय यह प्रकट किया है कि इन्द्रादि अपने सम्पूर्ण वैभव को समवशरण सभा मण्डप के ब्याज-बहाने से आपके चारों ओर बिखेर देता है, परन्तु तो भी आप अपने वीतरागभाव में ही निरत