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चतुर्यिशति स्तोत्र
रहते हो, यहाँ तक कि सिंहासन पर भी चार अंगुल ऊपर अधर निराश्रय से ठहरते हो || २० ।।
हे प्रभो पर पदार्थों से सर्वथा विरक्त हुयी चिदात्मशक्ति अपने में स्थित हुयी भी अपने निजभावों से सम्पन्न हुयी । आपकी चित् चैतन्य प्रभा अपने निज स्वभाव को स्पर्श करती हुयी अद्भुत महिमा को प्राप्त हुयी है | वह चिति-चेतना अपनी स्वजातीय चेतनामयी भावों से द्वेष को प्राप्त नहीं होती, अपितु अशेष शक्तियों को अपने में समेट कर निज स्वभाव भाव से भरित रहती है | क्योंकि जो ज्ञान-दर्शन रूप पूर्ण शुद्ध चेतना है वह सदा चैतन्यरूप ही रहती है ।। २१ ।।
यह अपूर्व चेतना परम निर्मल स्वभाव रूप हो बाह्य पदार्थों के यथा तथा स्वरूप का वहन करती हैं अर्थात् उन्हें प्रतिबिम्बित करती है । तथा भगवन् आप में स्थित ज्ञानशक्ति की अविनाभावी शक्तियों को भी धारण करती है । अर्थात् अन्तर बाहिर अशेष पदार्थ इसमें प्रतिबिम्बित होते हैं । परन्तु तो भी अनन्त विज्ञानधन स्वरूप आप मोह को प्राप्त नहीं होते, द्वेष भी नहीं करते और रागी भी नहीं होते । यह ज्ञान की महिमा बड़ी ही अद्भुत है || २२ ||
यह जो वाह्य पदार्थों का समूह आपके ज्ञानधन स्वभाव में आ संघटन करता है अर्थात् ज्ञानज्योति में प्रवेश करता सा प्रतीत होता है वह आपके अनन्त ज्ञान प्रकाश ज्योति को उद्वेलित नहीं कर सकता । यद्यपि त्रिकालवर्ती, त्रैलोक्य पूरित पदार्थ एक साथ सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रवेश पाते हैं, झलकते हैं परन्तु उसकी स्वच्छता को तनिक भी मलिन करने में समर्थ नहीं होते । वह चेतना अबाध रूप से निज एक चिदात्मकलिका के विकास-हास में ही निमग्न रहती है।
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