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चतुर्विज्ञमति स्तोत्र
वस्तुतः आपने आपेक्षिक दृष्टि से एक ही पदार्थ में एक साथ नास्तित्व और अस्तित्व धर्म की युगपत् सत्ता सिद्ध की है । पर चतुष्टय अपेक्षा नास्तिपना और स्व चतुष्टयापेक्षया अस्तित्व पना स्वयं वस्तु धोतित करती है | आपके ज्ञान की स्वच्छता में वस्तु स्वरूप जैसा झलका वैसा ही निर्दिष्ट किया है ||१५॥
हे भगवन् आत्मतत्त्व में भवन (परिणमन) एवं अभवन् (स्व स्वभाव अच्युति) स्वभाव के माध्यम से आपने अपने निज स्वभाव को प्रकट प्राप्त किया है । इसीसे निज परिणति से परिणत हो परमात्मत्व को प्राप्त किया है । अभाव और सद्भाव का उपचय-समन्वय रूप ही यह आपका स्वभाव है । विभाव रूप रागादि परिणतियों का अभाव और ज्ञानादि गुणों की संहति प्रप्ति ही तो आपका निज स्वभव है । इस पहल का सही मीश." होगा अति कठिन है । परन्तु आपने अपने पुरुषार्थ का सम्यक् प्रयोग कर उसे अपनी ही पूर्णज्ञान शक्ति द्वारा अवगत कर प्राप्त कर लिया ॥१६॥
सम्पूर्ण पदार्थ ग्राही प्रमाण होता है और एक अंशग्राही नय होता है । अतः नय सप्तभंगी की अपेक्षा सदा एकरूपता लिए वस्तु एक धर्मात्मकही है और यही निरवद्यरूप से अनेकात्मक ही है । आप भी इसी प्रकार अवगत ‘कर अवधारित किये हो । अपने निरंजन ज्ञान द्वारा यह सिद्धान्त निर्बाध स्वीकृत किया है । अतः तुम इस सिद्धान्त को क्यों निराबाध मानते हो ? क्योंकि वस्तु स्वभाव-वस्तु का प्रवाह तर्क का विषय नहीं होता । विचारणा की कसौटी पर उसे परखने की आवश्यकता नहीं होती । जो जैसा है वह वैसा है और जो जिसरूप होता है वही ज्ञान का ज्ञेय विषय बनता है । आपके ज्ञान में भी वही पदार्थ स्वभाव आया है ।।१७।।
भगवन्! तुम तो टंकोत्कीर्ण एक मात्र ज्ञायक स्वभाव रूप चैतन्य . द्वारा एक नित्यपने से अवस्थित हो । अर्थात् केवल ज्ञान-अनन्त व अच्युत