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चतुर्विंशति स्तोत्र
रहेगी । इस अवस्था में अतृप्त एक-एक विषय को सेवन करने वाली इन्द्रियों का व्यापार भला किस प्रकार चल सकता है ? अर्थात् नहीं चल सकता । प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने सीमित एक-एक ही विषय को मेवन करती हैं वह भी क्षणिक काल के लिए । परन्तु जिस समय ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो जाने से अनन्त ज्ञान और दर्शनावरणीय के क्षय से अनन्त दर्शन तथा मोह और अन्तराय कर्मों के अभाव में अनन्त सुख व अनन्त वीर्य प्रकट हो गया तो अब भला खण्डज्ञान का व्यापार किस प्रकार चल सकता है ? पूर्ण स्वातन्त्र्य में पराश्रितता क्यों रहे ? नहीं रह सकती । पूर्ण तृप्त होने पर असन्तोष नहीं रह सकता । अतः व्यग्रता, आकुलतादि स्वयं नष्ट हो जाती हैं । मात्र स्वाधीन आत्मानन्द ही रहता है ||२४||
उपर्युक्त विवेचना का सार यह है कि भो आत्मन! यदि तू अपने निजरस के भार से भरित हुआ अपने स्वभाव चिदात्मशक्ति को समेट कर प्रमाण की कसौटी पर परख ले तो निश्चय ही नयों द्वारा खण्डरूप या विभिन्न शक्तियाँ विखरी हुई प्रतीत हो रही थीं वे एक समुदाय रूप में प्रतीत होंगी । अर्थात् भेददृष्टि का अभाव होकर अभेद दृष्टि जाग्रत हो जायेगी । यद्यपि उस अभेद दशा की प्राप्ति के लिए नयात्मक भेद दृष्टि की प्राथमिक अवस्था प्रशंसनीय है, परन्तु अखण्ड एक, चिदाकार, ज्ञान घनस्वरूपात्मा का प्रत्यक्षीकरण होने पर नय व प्रमाण का भेद ही समाप्त हो जाता है । अतः आत्मस्वरूप साधक मुमुक्षु को एक अचल अखण्ड, एकान्तशान्तरस भरित चैतन्य रूप ही मैं हूँ ऐसा चिन्तन, ध्यान व मनन करना चाहिए । चैतन्य ज्योतिपुञ्ज के अतिरिक्त मै और कुछ भी नहीं हूँ यही पूर्ण ज्ञान चेतना की अवस्था मैं हूँ ||२५||
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