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चतुर्विंशतिस्तोत्र
है । मुझे तो ऐसी संभावना आशा जाग्रत हो रही है कि इस सहज उज्जवल निर्दोष चैतन्य विलास के द्वारा अशेष विश्व ही द्योतित हो रहा है और ऐसा प्रतीत होता है मानों संसार का समस्त तेजपुञ्ज आपके सर्व व्यापी ज्ञानोज्जवल प्रकाश की आरती ही करने आया है। अभिप्राय यह है कि आपके पूर्ण निर्मल केवल ज्ञान के समक्ष समस्त ढाई द्वीप के सूर्य चन्द्र व तारागण अपने - अपने प्रकाश द्वारा आरती लिए हुए मानों पूजार्थ आये हैं । अर्थात् सबका प्रकाश केवलज्ञान के समक्ष नन्हे नन्हे दीनों के समान दिन-नटमात नीरांजना कर रहे हैं | ऐसा विशाल है चैतन्य का चिद् प्रकाश ॥ २२ ॥
हे भगवन्! घातिया कर्मों को आपने ध्यानल से भस्मसात कर दिया | इसी से आपका परमौदारिक शरीर प्रकट हो गया । यह चैतन्य के भार से पूर्णतः निर्भर है, लगता है मानों चारों ओर से चिद्रूप के प्रदर्शन के लिए तुमुलनाद गर्जना कर रहा हो । अत्यन्त उग्र किन्तु शान्त प्रकाश भामण्डल के व्याज से आप के चारों ओर बिखर रहा है । हम तकंणा के आधार पर यह अवगत करते हैं कि कातर कायर या भीरु इन्द्रियाँ भयातुर हो एक साथ उन्निद्र हो गई हैं । अर्थात् अब प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान-दर्शन के समक्ष ये सर्व निष्क्रिय हो गई । मात्र आपका सहज आत्म स्वभाव चिद् शक्ति का ही मात्र अनुपम तेज रह गया है ||२३॥
हे प्रभो! जिन ! सर्वज्ञ संसार के सम्पूर्ण पदार्थों उनके गुण और अनन्त पर्यायों का एक ही समय में एक साथ युगपद भोगने की शक्ति आपकी उदित हो गयी हैं । अर्थात् अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन का अमितकाल के लिए आप में प्रकटीकरण हो गया । यह महिमा नित्य एकरूप में उदीयमान