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चतुर्विंशति स्तोत्र
व्यक्ति पशु समान है । स्वहिताकांक्षी ज्ञानाभिलाषी हो अनन्तज्ञान का प्रकाशन करें ॥ १९ ॥
हे देव! जिनके द्वारा अपने अज्ञानतम से ज्ञानावरणी कर्म को पुष्ट किया जा रहा है | वे पशु-मूढ़ अज्ञानाशों से आच्छादित हो अपनं निर्मल बोध को चित्रित कर रहे हैं । कामों के नाना पेड़, सेवित्र विशाल सनः रहे हैं यदि ये ही प्राणी संसार ज्ञाता-सर्वज्ञ हे प्रभो! आपके महाज्ञान रूपी सागर के शान्ति सुधा कणों को समन्वित करने की चेष्टा करें तो अवश्य ही स्वयं के ज्ञानसिन्धु को प्राप्त कर लें । अभिप्राय यह है कि स्वयं आत्मा अपार ज्ञान सुधारस परिपूर्ण अमित सागर है उसे ही प्राप्त करना चाहिए । अर्थात् अपने ही अशेष द्रव्य गुण पर्यायों का व्यक्तिकरण करना चाहिए || २० ।।
परमावगाढरूप सम्यक्दर्शन के साथ आत्मा की ज्ञातृत्वशक्तिएकाकार होती है । इसके प्रभाव से आत्मज्योति का तेज प्रखर हो प्रकट हो जाता है । इसके प्रताप के समझ कर्तृत्वबुद्धि उपशमित हो जाती है । फलतः सम्यक्ज्ञान विशेषरूप से अनुभव में आता है । यद्यपि यह ज्ञान चेतना कुछ अंशों में कर्मचेतना से मिश्रित होने के कारण कुछ क्षीण कषाय से संविलित हो सकती है । परन्तु तो भी सम्पूर्णरूप से अपना प्रभाव नहीं डाल सकती हैं । अर्थात् विकारोत्पादन शक्ति क्षीण हो जाने से आत्मा के निज स्वभाव-अनुजीवी गुणों का घात नहीं कर सकती । अभिप्राय यह है कि सम्यकदर्शन के साथ सम्यक्ज्ञानरूपी सूर्य के उदित होते ही कषाय रूप उल्लू स्वयं छिप जाते हैं- निष्क्रिय हो जाते हैं ।। २१ ।।
हे भगवन् ! इस समय वेग के साथ आपके विस्तृत प्रगाढ एवं पुष्ट, उन्नत प्रकाश शक्तिचक्र ने अनुपम, अलौकिक सुप्रभात ही अर्पित किया
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