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चतुर्विशति स्तोत्र
ने अपने को कषाय-रूपी वस्त्र की खोल से आच्छादित कर रखा है । इस रहस्य को ज्ञात कर अपने ज्ञानामृतम्स में निमग्न हो जाय तो यह खोल सर्प की कांचली समान स्वयं उतर जाय और चैतन्य मात्र स्वाभाविक सहज स्वभाव उपलब्ध हो जाये ॥ १७ ।।
संसार में अनादि अविद्या - अज्ञान के तीव्रोदय से अर्थात अज्ञान तमरूप झंझावायु के द्वारा प्रताड़ित और आकुलित होकर, सम्यक विज्ञान ज्योति के स्फुलिंगे • कण - कण होकर बिखर रहे हैं । अर्थात् ज्ञानावरणीकर्म के क्षयोपशमानुसार विविध रूपों में यत्र-तत्र प्रसारित हो रहे हैं । हं भगवान ! तो भी यदि आत्मा आपके सातिशायी, अद्भुत, महावैभव के प्रकाश को सम्यक् प्रकार अवलोकन करले ती शीघ्र ही सम्पूर्णकण सिमटकर अपने पद में एकत्रित हो सकते हैं । संसार की नीति है, ज्योति से ज्योति प्रचलित होती है, अतः आपकी निर्मलज्ञान ज्योति के उत्कृष्टतम प्रकाश पुञ्ज को देखते ही स्वात्म ज्योति भी जाग्रत हो सकती ॥ १८ ।।
हे भगवन्! महान् आश्चर्य है कि यह पामर संसारी प्राणी अपने ज्ञानस्वभाव से भिन्नभूत फल प्राप्ति की आकांक्षा से पशु समान विषयाभिलाषा के भार को वहन कर रहा है? प्रथम ही जिस ज्ञान ने अखिल विश्व को अपना शिष्य बनाया अर्थात जिस विश्व व्यापी सर्वज्ञता के समक्ष संसार के अखिल प्राणियों ने घुटने टेक कर नमन किया, अपना गुरु माना । उसी अभूतपूर्व ज्ञान को ही अपने में समाहित कर क्यों नहीं धारण करते हैं । सुख आत्मा में है, आत्मा ज्ञानरूप हैं | ज्ञान और सुख एकाकार हैं परन्तु, मोतिमिर से प्रच्छन्न प्राणी ज्ञान से भिन्नभूत विषय कषायों द्वारा इन्द्रियभिलाषा की पूर्ति में व्यर्थ ही शक्ति लगा रहे हैं । वस्तुतः ज्ञानविहीन