________________
चतुर्विंशति स्तोत्र
व्यापार में संलग्न हुआ सकलदर्शी निजशक्ति को उदित नहीं करे, तब तक उसे किस प्रकार देख सकता है? अर्थात् कदाऽपि देखने में समर्थ नहीं हो सकता है । दृष्टा को दृष्टा ही अवलोकन करने में समर्थ होता है ॥ १५ ॥
हे भगवन् ! जो मुमुक्ष साधक सन्त आपके सिद्ध शुद्ध-स्वरूप की साधना करते हैं, सम्यक् प्रकार से उत्कृष्ट, विशिष्ट तपश्चरण करते हैं अहर्निश उत्तरोत्तर उग्रतम् घोर तपों में ही रमते हैं । अर्थात् तपश्चरण ही उनका जीवन होता है । हे जिन आपने सिद्धान्त ही निर्धारित कर दिया है कि प्रत्येक कार्य अपने अनुरूप साधन हेतु विधान से प्रतिबद्ध हो होता है | अभिप्राय यह है कि "कारणानुविधायि हि कार्यम् ।" कार्य के अनुकूल ही कार्य सिद्ध होता है यथा लक्ष्य स्थिर कर ही कोई भी साधन विधि में दक्षता प्राप्त कर वाण द्वारा उसे बिद्ध करता है, अनभिज्ञ नहीं कर सकता । अतः आपके सिद्धरूप की साधन विधि का अभ्यास इच्छा निरोधस्तपः करना ही चाहिए । अन्यथा उस चिदानन्द चैतन्य सिद्धात्मा की उपलब्धि नहीं हो सकती । तप करो, उसी में रमो, इन्द्रियों को विषयों से विमुख करो, यही उत्तम साधनविधि है || १६ ।।
हे प्रभो आत्मा ज्ञानघन स्वरूप है । यदि ज्ञान तन्तु-सूत्र अपने ज्ञानानन्द-निजानुभूतिरस में ही तन्मय हो जायें, तो निश्चय ही उसी क्षण परद्रव्य-राग-द्वेषादि से सम्बन्ध विच्छेद हो जाये । अभिप्राय यह है कि परभावों-विकारी भावों में जकड़े ज्ञानांश अपने निजभाव में प्रवेश करें तो वे सकल विकारी परिणतियाँ छिन्न-भिन्न हो जाये और शुद्ध स्वभावमात्र रह जाये । हे देव! भो आत्मन् ! इस अवस्था में आते ही अनादि कालीन तीव्र एवं घट्टरूप से चिपके अत्यन्त मलीमश, और सच्चिकन कषायरूपीवस्त्र जर्जरित हो विघट जाये | अभिप्राय यह है कि आप ही अपनी भूल सं आत्गा