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चतुर्विशति स्तोत्र
जो व्यक्ति गाय के समान किसी एक पदार्थ को लेकर चर्धन करते रहते हैं अर्थात् जिस प्रकार गौ चारा को निगलकर अपने कण्ट में रख लेती हैं पुनः उसी को बार-बार मुख में उगल-उगल कर थबाती है उसी में वह नधीनता समझती है । इसी प्रकार · · नादि वेचारे अज्ञानी प्राणी पंचेन्द्रिय विषयों के भुक्त भोगी होते हुए भी उन्हीं में रम रहे हैं । उन्हों की चर्चा-अचा करते रहते हैं । हे भगवन् आप ही एक ऐसे हैं जो एक साथ सम्पूर्ण विश्व के अशेष पदार्थों को अपने असीम अतीन्द्रियज्ञान द्वारा आत्म सात कर अचल अटल अपने ही स्वभाव में अदिति :हते हैं : टीक है; हे सुन विश्व के सार को ज्ञात करने वाला ज्ञान वहीं अनुपम होता है | उसमें क्या नहीं झलकला? सभी पदार्थ अनन्त पर्यायों सहित स्पष्ट प्रतिभासित होते ही हैं ||१३ ॥
हे म्वामिन् ! आपके अपार ज्ञानसागर में समस्त लोकालोक गण्इष के समान महिमा हीन हो गया है । अर्थात् समा गया है । इस ज्ञानसागा की लहरों में मानों एक ही उच्छवास में सिमटकर समा हित हो गया है । अर्थात् आपके ज्ञानरूपी सिन्धु की उर्मियों द्वारा समस्त विश्व आच्छादित कर लिया गया और वही एक मात्र स्फुराय मान हो रहा है | स्पष्ट रूप से वही ज्ञान सागर हिलोरे ले रहा है ||१४||
हे भगवन्! जो मन्दबुद्धि मूढ अपने आत्मस्वरूप प्राप्ति के प्रति निरुद्यमी हो रहे हैं प्रमादी हैं क्या वे आपके विश्वव्यापी-सर्वदर्शी वैभव का एक कणमात्र भी प्रदर्शित करने में सक्षम है ? नहीं है क्योंकि यावत्-काल-याने जब तक कोई सम्यक चारित्र रूप छत्र को अपने मस्तक पर धारण नहीं करे, तथा तदनुरूप आचरण को विकसित करता हुआ यथाख्यात चारित्ररूप
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