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चतुर्विंशतिस्तोत्र
एकान्त वादियों की तत्त्व व्यवस्था सार विहीन और स्व पर हृदय विदारक
है ।
हे जिन ! अपनी अद्भुत लक्ष्मी का जिसक्षण अवलोकन करते हैं तो वह सरकार उदा देखते-देखते नष्ट हो जाती है। और इस में रहने वाली शक्ति भी नष्ट हो जाती है । यह वैभव और शक्ति अपने प्रतिद्वन्दी के नाश के साथ ही पनपती है । परन्तु हे जिन ! आपने बताया कि आत्मा एक मात्र शाश्वत स्थायी है । इसका कोई प्रतिद्वन्दी नहीं हैं यह सदा बहार स्व स्वभाव में विलास - रमण करती है । इसका अहित कारक अन्य कोई नहीं है । यह तो अपने शान्त सहज स्वभाव में ही निवास करता है । इसकी असीम महिमा है || १०||
अशेष विश्व अपने-अपने स्वभाव - तेजपुञ्ज में सतत निमग्न रहता हैं । अर्थात् संसार अनादि-अनन्त स्वभाव निष्पन्न है | आपका आत्म प्रकाश - तेजपुञ्ज तो प्रकट अपने प्रताप द्वारा विश्व को भी अतिशायी कर गया । हे देव! इस प्रकार की अद्भुत - आल्हादकारी आनन्दघन महिमा वाला आत्मा निशंसय रूप से आपमें ही प्रतिभासित होता है । भाग्यवशात् यदि कोई मिथ्यात्व के उदयवश इसके विपरीत आत्मस्वरूप को मानता है तो वह निपट अज्ञानी पशु हैं और तत्त्व का विप्लव करने वाला है ॥११॥
सम्पूर्ण संसार को अपने सर्वोत्कृष्ट चैतन्य के निरकुल ज्ञान के द्वारा आत्मसात करने वाले प्रत्यक्ष रूप से लिखत के समान उत्कीर्ण करने वाले आप ही ईश हो, समर्थ हो । क्योंकि एक मात्र आप अपने आत्मरूप में निष्ठ हो । अन्य जो बाह्यपदार्थों में ही अपनी ज्ञान शक्ति का प्रयोग करने में लगे हैं वे तो पशु सदृश अज्ञानी है । उनका आत्म स्वभाव में अध्यवसाय हो ही नहीं सकता फिर भला वे प्रमादी विश्वज्ञ ईश किस प्रकार हो सकते हैं ? कदापि नहीं हो सकते ||१२||
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