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आत्म निवेदन
आत्म धर्म के प्रणेता अनादिकाल से तीर्थंकर परम देव रहे हैं और रहेंगे। यद्यपि धर्म अनाद्यनिधन है, तथाऽपि स्वाभाविक वस्तु स्वरूपानुसार इसमें भी पर्याय दृष्टि से परिणमन भी होता रहता है । उत्थान-पतन के झकोरे आते ही रहते हैं, जिन्हें आगमानुसार उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी नाम से पुकारा जाता है । इनमें असंख्यात कल्पकालों के अनन्तर हुण्डावसर्पिणी काल आता है। वर्तमान यही नाम धारी है। इसमें बहुत सी अनहोनी घटनाएँ भी घट जाया करती हैं । यथा तीर्थंकर के कन्या जन्म। तीर्थंकर प्रभु से पूर्व मुक्त होना, चक्रवर्ती का मासिउन, तीर्थंकरों की बामपाएकनिषाणभूमियों का पृथक्करण आदि। वर्तमान अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु भगवन्त का शासनकाल है। उनके मुक्त होने के बाद तीन अनुबद्ध केवली, पाँच श्रुतकेवली हुए। तदनन्तर केवलज्ञान एवं पूर्ण श्रुतज्ञान का लोप हो गया। परन्तु परमपूज्य हमारे धरषेणाचार्य, भूतवली, पुष्पदन्त, कुन्द-कुन्द समन्तभद्र, उमास्वामी आचार्य परमेष्ठियों ने अंग, अंगवाह्य रूप में श्रुत का अवधारण किया और जिन शासन को सजीव बनाये रहे । तथाऽपि उत्कृष्ट दिगम्बर यति धर्म परम्परा में शिथिलाचार आता गया। क्रमशः दीपक की टिमकार रूप में आ गया। उपर्युक्त आचार्य परमेष्ठियों को परम्परा में लगभग 20 वीं सदी के प्रारम्भ में प. पू. आचार्य परमेष्ठी, मुनीकुंजर समाधि सम्राट् आदिसागर जी अंकलीकर प्रकट हुए, जिन्होंने जिन शासन की लचीली रीढ को सुदृढ़ बनाने का अथक प्रयास किया। दिगम्बरत्व को शुद्ध किया। मुनिपरम्परा में नवीन ज्योति प्रदान की और इस परम्परा को अक्षुण्णरूप से प्रांजल रखने की भावना से अनेक मुनि, आर्यिकाएँ, क्षुल्लकक्षुल्लिकाएँ, उत्तम श्रावक श्राविकाएँ बनायीं । वर्तमान में उन्हीं को दैन से सर्वत्र धर्मोपदेशक साधु संत, साध्वियाँ विचरण करते नजर आ रहे हैं। इन्हीं में सर्वश्रेष्ठ व ज्येष्ठ आपके शिष्य मुनि श्री 108 महावीरकीर्ति जी थे, जिन्हें आपने