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समाधिधारण के पूर्व ही अपने आचार्य पद को प्रदान कर द्वितीय पट्टाधीश बनाया। आप 18 भाषाभासी, परम तत्त्वज्ञ व तार्किक, न्यायादि शास्त्रों के ज्ञाता थे । प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता उद्भट विद्वान आप ही थे ।
चतुर्विंशति तीर्थकर जिनों के स्तवन के रूप में प्रस्तुत ग्रन्थ में गूढतम सैद्धान्तिक, दर्शनशास्त्र, न्याय, तर्क आदि का समावेश कर जिनागम का अभूतपूर्व भाण्डार भरा है। यही नहीं जनकल्याण किया है। इसमें तीर्थकरों प्रभुओं ने किस प्रकार अखण्ड ज्ञान, ध्यान तल्लीन हो आत्मा को परमशुद्ध वीतराग परिणति से परमात्मपद प्राप्त किया, इसका विशद वर्णन है जो हमें प्रतिक्षण आध्यात्म, आत्मसुधा रस का पान कराने में पूर्ण सक्षम है।
भाषा कुछ विलष्ट है क्योंकि विषय भी वैसा ही तत्त्वमिश्रित हैं। इस ग्रन्थ के अध्ययन, मनन, चिन्तन, पठन-पाठन से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति, वृद्धि व पुष्टि होना सम्भव है। साथ ही सम्यग्दर्शन से परिमार्जित दृष्टि परिपुष्ट करने वाली सम्यग्ज्ञान ज्योति जाग्रत होती है। यही नहीं सम्यग्ज्ञान का परम मित्र सम्यक् चारित्र भी वृद्धिंगत होगा। इस प्रकार यह निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग का दर्शक है। इसमें श्लोकों की अनेक अशुद्धियाँ व अपूर्णता से स्पष्ट होता है कि यह किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा लिपिबद्ध किया गया है उतारा गया है। क्योंकि हस्तलिखित है | आचार्य श्री के परमभक्त श्री फूलचन्द्र जी के यहाँ उपलब्ध हुआ है । सम्भव है उन्होंने इसी श्रद्धाभक्ति से पूजार्थ किसी से उतरवाया हो। जो हो ग्रन्थ अपने में पूर्ण आनन्दरस प्रदाता है। जिनभक्ति का अनुपम स्वरूप प्रकट कर्त्ता है। आचार्य श्री की प्रगाढ़, अच्युत, सुदृढ़, वीतराग जिनेन्द्रभक्ति का परिचायक तो है ही, अन्य समस्त श्रद्धालुभव्य पुण्डरीकों को प्रफुल्ल करने के लिए निरभ्र भाष्कर है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की गम्भीरता, दुष्कर तत्त्व निरूपण अतिकठिन शब्द संयोजना, समासान्त पद रचना, छन्दोषद्धता आदि मेरी अल्पबुद्धि से बहुत परे हैं, अगम्य है। कुछ दिन पर्यन्त तो पाठ करने का भी साहस नहीं हुआ। परन्तु आचार्य परमेष्ठी, मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् के तृतीय पट्टाभीश श्री परम् पूज्य परमाराध्य, वात्सल्यरत्नाकर, तपस्वी सम्राट् आचार्य देव की सरस प्रेरणा,