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आशीर्वाद परमपूज्य आचार्य परमेष्ठी विमल सागर महाराज वर्तमान में सुप्रख्यात सुप्रसिद्ध महाप्रभावक हुए हैं। उनके ज्ञान का क्षयोपशम अद्वितीय रहा है तथा विवादों को निर्विवाद बनाने में आपका ज्ञान सहायक रहा है। ज्ञान के अभाव में संसार में अंधेरा ही अंधेरा है। 23.10.93 को आपने संदेश दिया वह इस प्रकार है-"जैन समाज आचार्य में आचार्य आदिसागर जी अंकलीकर की परंपरा और आचार्य शांतिसागर जी दक्षिण की परंपरा इस युग में निर्बाध चली आ रही है समाज का कर्तव्य है कि किसी प्रकार का विवाद न करके दोनों परम्पराओं के आपन सम्मत मानकर वात्सल्य का प्रभागा ना करें."
आगम की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। यह तीर्थंकरों से प्राप्त होती है। वह समय-समय पर गणधरों प्रतिगणधरों के द्वारा प्रसारित हुई है। उनके वचनानुसार अज्ञानांधकार कूप से निकालकर सन्मार्ग मुक्ति पद की
ओर लगाने वाले भगवान महावीर तीर्थंकर के अनुयायी अहिंसा के पुजारी प्रशांत मूर्ति परमाराध्य आचार्य शांतिसागर महाराज दक्षिण द्वारा वंदित, दक्षिण भारत के वयोवृद्ध दिगम्बर संत, आदर्श तपस्वी, महामुनि, अप्रतिम उपसर्ग-विजेता, चारित्रचक्रवर्ती, मुनिकुंजर, समाधिसम्राट्, कलिकाल तीर्थकर, धर्म प्रवर्तक, दिगम्बर जैनाचार्य शिरोमणी श्री आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश सिद्धान्त चक्रवर्ती, अष्टादशभाषा विज्ञ, आचार्य परमेष्ठी श्री महबीर कीर्ति जी महाराज द्वारा प्रतिपादित चतुविंशति स्तोत्र की प्रति अशोक कुमार जी से प्राप्त हुई थी जिसकी हिन्दी टीका गणिनी आर्यिका विजयामति माताजी ने गमक गुरू से प्राप्त ज्ञानानुसार की है। यह सीधी सरल भाषा में सुस्पष्ट है और आगमानुसार है। इसमें न्याय, सिद्धान्त, भक्ति आदि विषय गर्भित हैं अत: इसका अध्ययन करके हर प्रकार का व्यक्ति आत्मोन्नति कर सकता है।
मंत्र की सिद्धि करने में बाधा भी सम्भव हो सकती है। परन्तु इस वर्तमान काल में स्तोत्र की सिद्धि सुगमता से सम्भव होती है। मंत्रों में कुछ मंत्र पठित सिद्ध होते हैं । जिनका कि पाठ करते रहने से सिद्ध हो जाते हैं। उसी तरह से स्तोत्र होते हैं जो पढ़ते-पढ़ते सिद्ध हो जाते हैं। श्री 105 ज्ञान चिंतामणि रत्नत्रय हृदय सम्राट 20 वीं सदी की प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामती माताजी ने इस स्तोत्र की हिन्दी टीका करके जनमानस का महोपकार किया है इससे अल्पबुद्धि वाला भी लाभान्वित हो सकता है। परम हर्ष की बात है कि यह तृतीय संस्करण श्री दिगम्बर जैन विजया ग्रंथ प्रकाशन समिति जयपुर प्रकाशित कर रही है । इस उत्तम कार्य के लिए मेरा शुभ आशीर्वाद है। दिसम्बर 1999
आचार्य सन्मत्तिसागर