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चतुर्विंशति स्तोत्र
हे प्रभो! कोई भी एक चिरन्तन, विस्तृत, पुष्ट प्रकाश पुञ्ज आपके द्वारा धारण किया गया है । वह निईन्द, अविरुद्ध, निर्भय चैतन्य के वीर्य के अतिशय से निष्पन्न एक मात्र सुधापिण्ड ही निश्चय से प्रसर रहा है, आलोडित होता है | आज भी जिसकी अति भीषण गर्जना के बल से निर्द्वन्द हुयी तरंगावलि तीनों लोकों की उदरकन्दरा में अति निर्भय, भ्रम त्याग घूम रही है । अर्थात् इस आपके आनन्द सुधारस में लीन हुआ तीनों लोक गुफासमान प्रविष्ट हुआ भ्रमण करता है समाहित रहता है || ४ ।।
असीम दर्शन, ज्ञान से सुदृढ़रूप गूढ़ रहस्य को विस्तृत कर तीनों लोकों के भार के उन्मुख- अर्पित हुयी प्रचण्ड वीर्य वेग से संस्कारित होती हुयी ज्योति के अत्यंत स्फुलिंग प्रचण्ड रूप से चिनगारियों समूह से परिपूर्ण होने से विस्तार रूप से किरणों को फेंक रही हैं । अर्थात् आपके ज्ञानरूप अमर रविरश्मियाँ स्फलिंगों मा में चारों ओर नमकत हो रही हैं । प्रज्वलित ये किरणें स्पष्ट प्रकाश से विकसित पुष्ट चैतन्य रूप की आरतियाँ ही हैं । अभिप्राय यह है कि निस्पन्द आपकी ज्ञान ज्योति पुञ्जरूप होकर अग्नि स्फुलिंगों को आपके चारों ओर विखेर कर अनेक दीपो से आरती कर रही है | चैतन्य स्वरूप आपकी आभा ही अनेक रूप हो रही है || ५ ॥
द्रच्यार्थिक नय की अपेक्षा एकरूप से उछलता हुआ शुद्ध निर्मल ज्ञान आत्मोत्य मधुर ज्ञानामृत में प्रकट प्रकाशित है । अर्थात् आत्मा एक ज्ञानघन स्वरूप अखण्ड है | आत्मा के इस ज्ञानमय अखण्ड एकत्व को कौन सुबुद्धिसम्यग्दृष्टि एकान्त दुरांशयी हो खण्डित करे ? हे विभो! आपके इस एकत्व स्वभाव को भेदन करने वाला कोई भी विद्वान नहीं है । इसमें अनन्तधर्म रूप वैभव समाया हुआ है । यह स्वभाव प्रकटरूप से व्याप्त अनादि है । भेदरूप होने पर भी एक रूप ही भासता है ! यह अनादि स्वभाव है वर्तमान आज से नहीं । यदि हे देव! यह सादि होता तो स्वयं भी अनेक
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