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चतुर्विंशति स्तोत्र
पाठ- २४
है जिनेश्वर देव ! इस समय आपकी चित् शक्ति चिति में दिव्य. अनन्त विभूति रूपी वैभव अमित तेज धारण कर प्रकाशित हो रहा हैं । यह शुद्ध, निर्मल स्वरूप अनेक शक्तियों का आकार है । यथा एक अनेक. अपूर्ण पूर्ण, संकुचित- विस्तृत गूढ़ स्पष्ट नित्य- अनित्य, अशुद्ध-शुद्ध. आदि । ये विरोधी जैसे होते हुए भी आपके अनेकान्त सिद्धान्त, स्याद्वाद दर्शन से निर्विरोधी होकर समाहित हो जानी हैं ।। १ ।।
आपका सर्वज्ञस्वरूप अक्रमपने से एक रसरसेन युक्त होने से. क्रमिकपर्यायों के चक्र द्वारा क्रीड़ारम्भ अनेकरूप हो । घनरूप से एक उपयोगस्वभाव से प्रफुल्ल होने से गम्भीर है | आनन्द रस से भरे होने से एकोपयोगी अतिस्पष्ट हो, आपका यह स्वभाव कभी भी हीन नहीं होता । निरन्तर आनन्द रस उत्फुल-उछलता ही रहता है। इस सुगुप्त, सुन्दर रूप को बारम्बार पीते ही रहते हैं । अतः स्वतः स्वभाव से आप्यायित रहते हैं । यही आपका सुगुप्त स्वरूप है || २ ||
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आपका स्वरूप असीम धाम से भरा होने से सीमाहीन है । चारों ओर से परिवर्तनशील होने से ससीम है । उज्जवल उत्साह से उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होने से सीमा प्रमाण सिद्ध होता है । निराकुल एक स्वभाव रख में क्रीड़ा करने से चैतन्य सुधारस भरित सागर में उत्थित पर्याय रूप तरंगों से अनेकरूपता धारी भी हैं । इस प्रकार चैन्यामृत से परिपूर्ण हुयी पुष्ट स्वभाव लक्ष्मी आपके अद्भुततम रूप को पी-पी कर ठोस एवं पुष्ट हैं। इसके निरन्तर अमित तेज को कौन अमन्द कर सकता है ? संसार की कोई शक्ति क्षीण नहीं कर सकती || ३ |
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