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चतुर्विशति स्तोत्र
भिन्न-भिन्न स्वादों को साधता । एक ही ज्ञानानन्द स्वाद का अनुभव आप कर रहे हैं । अतः आपकी एक अखण्ड धारा का एकान्त नित्यानित्य का दुराशय स्खण्डन नहीं कर सकता ॥ ६ ॥
दर्शन-ज्ञानादि अन्योन्यात रस से एक के सनम मिश्रा स्वभाव भाव और अभाव की अपेक्षा अनेक रूपों को धारण करते हुए भी विकसित मुख्यरूप करने से हे देव! वे आपके अनेक स्वभाव गौण होने से आप एक रूप ही प्रकट प्रकाशित होते हैं | आप अनन्त विरुद्ध धर्मों को अपने में समाहित किये हैं | इन स्वभाव समूह द्वारा भित्र-भिन्न स्वरूप से उदीयमान होने पर भी आप अनेकान्त सिद्धान्त से गौण-मुख्य विवक्षाओं के क्रमिक प्रयुक्त करने पर एक गुण मुख्य और अनेक शेष गुण गौण हो जाते हैं । अतएव अनवस्थित-अनेकावस्था रूप होकर भी आप एक रूप अवस्थित भी हैं । यह आपकी सम्यक् व्यवस्था सदैव स्थित रहती है । अतः आपका स्वभाव द्रव्य न तो एकान्त से एक रूप ही है और न अनेक ही । अपितु विवक्षा वशात् एक भी है और अनेक भी । एकानेक है ।। ७ ।।
हे ईश! आपका ज्ञानालोक, क्रम और अक्रमरूप से आप में विलास करता है । यह चैतन्य मात्र है । यह परम विशुद्ध, उद्दाम चिदानन्द रस से परिपूर्ण प्राग्भार से सतत् एक रूप है । तथा अपनी ही चिद् शक्ति के प्रसार द्वारा अनेक रूप भी होता है | द्रव्यार्थिक नया अपेक्षा स्व द्रव्य-शुद्धात्मतत्त्व प्राप्त होकर भी निरुत्सुक है । अतः इसका वस्त्र चित् चैतन्य का पिण्ड है | यह भी अपने प्रचंड तेज में ही समाहित है । हे परमेश्वर अर्हन जिन यह प्रकाश पुञ्ज आप भी अपने स्व स्वभाव भरित शाश्वत रूप में विराज मान है । इसी प्रकार यह तेज स्विता हम लोगों के लिए जयशील हो. विजयी ही रहे । इस श्लोक में श्री गुरुवर्य आचार्य देव आशीर्वादात्मक जिन ज्ञान
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