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चतुर्विंशति स्तोत्र
समस्त दिशाओं को अपनी असीम, स्पष्ट स्वभाव रूप ज्ञान ज्योति से ज्योतिर्मय कर एकरूप कर रही है। हे जिन ! आपकी करोड़ों सूर्यो को भी तिरस्कृत करने वाली आभा चतुर्दिक व्याप्त है । सम्पूर्ण जगत इसमें व्याप्त हैं । प्रकाशित हो रहा है ।। २२ ॥
यह आत्म ज्योति स्व पर प्रकाशन में परापेक्षा नहीं करती, अपितु स्वयं स्वशक्ति से ही भासुर है । स्व पर प्रकाश में पर प्रकाश की खोज नहीं करती । बुद्धि शाली पराधीन होना नहीं चाहते । आपका अपना ही ज्ञान वैभव स्वयं सर्वत्र प्रकाशमान रहकर स्व पर का प्रकाशन करता है || २३ ||
जिनेन्द्र प्रभु के पारमौदारिक दिव्य शरीर में इस प्रकार यह सम्पूर्ण ज्ञान ज्योति व्याप्त रहती है । निरन्तर विचरण भी करती है । यह ज्ञान मात्र सत्ता निरंतर एक रूप से व्याप्त रहती है । आप में ज्ञान घनरूपता निरन्तर स्वयं अपनी पूर्ण प्रकाश से प्रकाशित हो रही हैं । ज्ञान का अवरोधी कभी भी विरोधी प्रतिद्वंदी नहीं है || २४ ||
अपरिमिति स्वरूप रूप चेतना का अनुभव करते हुए मैं भी तन्मयरूप हो रहा हूँ । आचार्य श्रेष्ठ अपने अनुभव को प्रत्यक्ष दर्शाते हैं । हे भगवन् ! आपकी शुद्ध ज्ञानाभा का बारम्बार चिन्तन कर अपनी अनुभूति में अवतरित होते ही मुझ में भी वही असीम, अनन्त प्रकाशमयी आभा स्वयं प्रकाशित हो रही है। अत्यन्त पुष्ट और व्यापक रूप में प्रकाश मान ज्योतिर्मय ही मैं हूँ इस प्रकार अनुभव होता है । यही होता रहे । यही अभिलाषा है ।। २५ ।।
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