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यतुर्विशति स्तोत्र
पाठ-१७ प्रहषिणी छंद ॥
वस्तु तत्व के विधि निषेध रूप उभय धर्मों में से यदि विधिरूपता ही स्वीकार की जाय तो उसका एकाश रूपता होने से पारणमन शांत का अभाव हो जायेगा । तत्त्वार्थ की उभय रूपता को एकान्तपने से निरूपण करने की एक साथ योग्यता शब्दों में है नहीं । अर्थात् शब्द-वाचक अपने वाच्यभूत पदार्थ के अनेक धर्मों का एक साथ निरूपण नहीं कर सकते । हे जिन! आपकी अपेक्षावादी स्याद्वाद शैली ही शब्दों में क्रमशः प्रतिपादक शक्ति प्रदान करती है । अतः आपके उदार और व्यापक अनेकान्त सिद्धान्त शैली से शब्द शास्त्र उपकृत हो तत्त्व निरूपण में समर्थ होता है । १ ।।
"आत्मा" इस प्रकार की ध्वनि ही अपने वाच्यभूत आत्मद्रव्य को शुद्धात्मरूप में स्वाभाविक स्वरूप के विधान में प्रवृत्त होती है । उत्पाद-व्यय स्वभाव से प्रत्यक्ष स्फुरायमान होती हुई, आत्मा उच्च-नीच दशा को प्राप्त त्रिलोक को अपने में अपने ही द्वारा प्रविष्ट करा लेती है । अर्थात् स्वयं जाग्रत रहते हुए संसार को अस्त कर देती हैं । संसारातीत हो जाती है || २ || पूर्ण कैवल्य शक्ति प्रकट होने पर। अनिच्छा होने पर विहार स्थगित हो जाता है तो भी तीर्थ प्रवर्तनार्थ स्वाभाविक विहार, होता ही रहता है || २ ||
__ अर्हन्त प्रभु परम वीतराग हो चुके । अतः गमनागमन इच्छा भी समाप्त हो गई । किन्तु आपके द्वारा प्रकटित आत्मशक्ति इस योग्यता को स्वभाव ही सेधारण करती है । क्योंकि निषेधशक्ति भी सापेक्ष होने से प्रवर्तन भी होता है ! अतः स्वानन्द स्वरस से परिपूर्ण उच्चतम रूप से प्रकट स्फुरायमान हुयी गमन की अभिलाषा रहित होकर भी धर्मतीर्थ प्रवर्तनार्थ जिन विहार होता ही है ॥ ३ ॥