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चतुर्विंशति स्तोत्र
निषेधरूप शक्ति के कारण आपके गमन निषेध का प्रकट भय को मानों अस्तमित करती हुयी विधिरूप शक्ति अपने पराक्रम के प्रताप से आपकी मधुर, हित, मित वचनों-दिव्यध्वनि की घोषित करती हैं । तथा कटु, कठोर, अहितकारी वचनों का निषेध शक्ति भी इनके अभाव की स्पष्ट धीर स्वर में घोषित करती है । इस प्रकार विधि-निषेध रूप उभय धर्मों का प्रवर्तन एक साथ होता रहता है । वस्तु स्वभाव सदैव एक रूप ही रहता है ॥ ४ ॥
इस प्रकार तीनों लोकों को विधिरूप से स्वाधीन करते हुए यह द्विविध धर्म निष्ठ आपकी वाणी वाच्य वाचक शब्द शक्तियों को भी अभिन्न रूप करती हुयी संसारग्राह्य अर्थ स्वरूप प्रसिद्ध है, यह असीम और निर्बाध सिद्धान्त अनाद्यनन्त है । वाच्य वाचक भाव भिन्न-भिन्न होते हुए भी प्रत्यक्ष एक रूपता-अभिन्नता प्रकट होती है । अर्थात् भिन्नत्व का लोप हो जाता है । नष्ट नहीं होता अपितु गौण हो जाता है ॥ ५ ॥
शब्दों की शब्दों में निहित वाच्य वाचक शक्ति अर्थ को व्यक्त करती है । यद्यपि भेदाभेद रूपता विरोधी प्रतिभासित होती हैं | परन्तु हे जिन आपके अनेकान्त सिद्धान्त में यह विरोध भी पूर्ण अविरूद्ध सिद्ध हो जाता है । क्योंकि यहाँ विवक्षा और अविवक्षा अपेक्षा मुख्य गौण रूपता कथित है | अतः आपकी वाणी रूप अमृत से अभिसिंचित शब्दों का भिन्न- अभिन्न पना सिद्ध ही है ।। ६ ।।
यद्यपि वचन विश्वव्यापी सत्ता को धारण करते हैं, तो भी यह योग्यता निरंकुश नहीं है अपने सपक्षी अपेक्षा अर्थात् स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावापेक्षा सत् रूप होकर भी पर चतुष्ट्य से असत् भी सिद्ध है | अतः शब्दत्व के साथ स्वयं अशब्दत्व भी सिद्ध हो जाता है ॥ ७ ॥
तत्त्व अपने अस्तित्व - सद्धर्मरूप सर्वथा और सर्वदा, स्पष्ट
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