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चतुर्विंशति स्तोत्र
पर्यायापेक्षा अनवस्थिति-क्षणिकपना धारण करता हुआ भी पदार्थ द्रव्यापेक्षा अवस्थिति-नित्यत्व धर्म भी धारण किये रहता है । इस प्रकार अत्यन्त प्रगाढ़ और भणिकता को लिए हाए हे देव! आपका सिद्धान्त तनिक भी विरोध को प्राप्त नहीं होता । गुण-पर्यायापेक्षा स्वतः वस्तु अभेद व भेद रूप धर्मों को धारण करती है । इसी से आपकी महिमा सतत अविचल बनी रहती है || २३ ।।
इस प्रकार हे जिन वस्तु स्वरूप यंत्र द्वारा प्रपीड़ित इक्षुदण्ड के समान निज स्वभाव च्युत नहीं होती । तथा विपरीत भी नहीं होती । अपने ही स्व-स्वभाव भरित निरन्तर उछलती है । उल्लसित होती हैं । पर पदार्थों में क्रीड़ा करती हुयी, उनमें स्वरूपसत्ता स्थापित कर ही अपने ज्ञान का विषय बनाती है । कदाऽपि उनमें निमग्न हो उन रूप नहीं होगी || २४ ||
हे जिन विभो! आपके परमोत्तम, परम पावन चरण सरोज में नाश और सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्रदान करे । हे स्वामिन् ! दयादृष्टि से पू. आचार्य कहते हैं कि हे जिनेश्वर मेरे का प्रसाद रूप मोहांधकार का नाश और सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्रदान करे । हे स्वामिन् दयादृष्टि से कृपाकर मुझे अपनी गोद में ले लो । अर्थात् मेरी जीवन धारा को परिवर्तित कर अपने समान बनाने की कृपा करिये । आचार्य देव ने जिन स्तोत्र के अन्त में अपनी कामना प्रकट की है कि -
"जो तू है वह हो जाऊँ मैं, मैं हो जाऊँ तुझसा ज्ञानी जो तूने पाया पाऊँ मैं, इसलिए सदागुणगाऊँ मैं"
मैं हो जाऊँ तुझसा ध्यानी ॥" २५ ।।
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