________________
चतुबिधाति स्तोत्र
अभेद दृष्टि से अनन्तशक्ति रूप भी आत्मसत्ता अत्यन्त तीक्ष्ण, अंश विहीन, एक रूप, अखण्ड आदि स्वरूप विस्तार को प्राप्त होती है | प्रतिसमय जगत को अनेक रूप में धारण कर सारा संसार उदित होता रहता है । आपका ज्ञानरूप पैना अस्त्र विश्व को विदीर्ण करता हुआ शोभित होता है ।। १८ ॥
आपकी ज्ञान चेतना एक ही काल में हानि वृद्धि को प्राप्त होते हुए सम्पूर्ण पदार्थों के समूह को प्रतिभासित करती है । अववव, अवयवी के भेद से अनेक व एक रूप से ज्ञान लक्ष्मी स्व स्वरूपनिष्ठ ही रहती है ।। १९ ।।
आपके सिद्धान्त में आत्म तत्व जड़-चेतना उभय रूप होकर भी नया निरपेक्ष एक मात्र अपने शुद्ध बोध के तेज-प्रकाश में प्रकट रहता है । द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों से ज्ञानधाम वलात् एकानेक रूप से निरन्तर अवभासित रहता है || २० ॥
यदि आत्मा सर्वगत है तो भी अपनी नियत स्व स्वभावशक्ति में ही सीमित रहती है । इस प्रकार स्व-पर के आश्रय से ये विरुद्ध धर्म प्रतिभासित होते हैं | परन्तु आपके अनेकान्त सिद्धान्तानुसार अपेक्षाकृत होने से अविरुद्ध सिद्ध होते हैं । अतः प्रत्येक तत्त्व एकानेकादि अनेक धर्मो को विवक्षा-अविवक्षा रूप से निर्विरोध मुख्य-गौण कर धारण करता हो है ।। २१ ॥
उत्सर्ग मार्ग की महिमा में अपवाद मार्ग स्पष्ट रूप में विलीन हो जाता है । अर्थात् मुख्य धर्म की विवक्षा में गौण-अविवक्षित प्रतिभासित नहीं होता । इस प्रकार आपके अनेकान्त सिद्धान्त की महिमा निरन्तर एकानेक रूप से अविरुद्ध प्रतिभासित होती है । तदतद् रूप ही वस्तु का निज स्वभाव है ।। २२ ।।