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चतुर्विशति स्तोत्र
हे देव! आपकी दृग् शक्ति (दर्शन) एक और अखण्ड है । तो भी पर्यायापेक्षा से आपके अलांकिक पुरुषार्थ से ससार की समस्त अनन्त वस्तुओं का निरीक्षण करने से अनन्त खण्डरूप से व्याप्त होती हैं । अर्थात् विश्वव्यापी हो संसार विक्रम को एक ही समय में एक साथ ही अवलोकन कर लेती है । यह आपकी अनन्तशक्ति युक्त अनन्तदर्शन की परिणति स्वभाव से ही होती रहती है, कभी भी क्षीण नहीं होती ।। ४ ।।
देवाधिदेव! आपकी अखण्ड, एक रूप दृगशक्ति निरन्तर, सदाकाल एक रूप से व्यवहत रहती है | यह नहीं कि वाह्य पदार्थों की उपस्थिति में अवलोकन क्रिया कार्यान्वित होती हो । यह अद्वितीय शक्ति है जो दृश्यपदार्थों के अभाव में भी अपनी शुद्धावस्था में भी स्वाभाविक रूप में निरंतर जाग्रत रहती है । क्यों कि असहाय, अतीन्द्रिय और स्वाभाविक है । निश्चय नय से अपने ही अनन्त रूप के अवलोकन में ही अचल बनी रहती हैं ।। ५ ।।
हे जिन आपने आश्रय और आश्रयी में इतरेतर सम्बन्ध निर्दिष्ट किया है । आश्रयों के बिना आश्रयी नहीं टिक सकता और आश्रयी के अभाव में आश्रय भी रहने में समर्थ नहीं होते । यह अकाट्य सुनिश्चित सिद्धान्त है | यथा सूर्य में प्रताप और प्रकाश युगपत एक ही रवि के आश्रय में रहते हैं । भास्कर बिना प्रताप-प्रकाश अवस्थित नहीं होते और प्रताप-प्रकाश बिना मार्तण्ड का अस्तित्व भी संभव नहीं है । आत्मा और दृशि (दर्शनशक्ति) में भी इसी प्रकार आश्रय-आश्रयी भाव है | अतः आत्मा की दर्शन शक्ति अपनी निज स्वभावता से आत्मा का अवलोकन करती हुयी सतत क्रियाशील रहती हैं ॥६॥
विधि निषेध बाधित है और निषेध विधि द्वारा बाधित होता है, परन्तु ये दोनों धर्म एक साथ निर्विरोध रूप से रहते हुए पदार्थ की सिद्धि
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