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चतुविशति स्तोत्र
करते हैं । आपने वस्तु स्वभाव को सामान्य-विशेषात्मक निरूपित किया है । सामान्य का विषय विधि और विशेष का विषय निषेध हैं । इन उभयधर्मों से व्याप्त वस्तु स्वरूप है । अतः एक साथ वर्तन कर स्वभाव सत्ता सिद्ध करते हैं || ७ ||
हे सर्वज्ञ, जिनदेव! यह आपका सिद्धान्त कभी भी अन्यथा नहीं है । क्यों कि पदार्थों का अस्तित्व अन्य प्रकार नहीं है । पदार्थ अन्यरूप सिद्ध ही नहीं होते हैं । अतः सर्वप्रकारेण विधि और प्रतिषेधधर्म एक साथ, एक ही समय में अवस्थित रहते हैं, यह निर्विरोध सिद्ध हैं । वस्तु स्वभाव यथा तथा रूप रहता है ॥ ८ ॥
कथन की अपेक्षा याच्य, पाचक भिन्न हैं : परन्तु दोगे। एकाश्रय रूप से ही ज्ञापन होता है । एक वाच्य के अनेक वाचक हो सकते हैं । परन्तु उनसे वाच्य की अखण्डता खण्डित नहीं होती । द्वयात्मकता ही वस्तु का वाच्य का अपना माहास्य है । यथा अनेक वाचक शब्दों का उच्चारण करने पर भी सैकड़ों खण्डों में कटकर विभाजित नहीं होती, एक ही रहती है । इसी प्रकार वाच्यभूत पदार्थ उभय धर्म धारण कर भी भेद रूप नहीं होता । अपने अखण्ड एकरूप का परित्याग नहीं करता । उभय रूपता में ही वस्तु महास्य अवस्थित रहता है || ९ ॥
प्रत्येक वाच्यभूत पदार्थ उभय धर्म-विधि-निषेध या सामान्य विशेष धर्मों के लिए सिद्ध है । प्रत्येक के वाचक शब्द अनेक हैं । वचनशक्ति में उन सब धर्मों को एक साथ निरूपण करने की योग्यता ही नहीं है । अतः क्रमिक रूप से निरूपण करने की ही शक्ति हैं । निश्चय से यही उनका स्वभाव है । स्वभाव तर्क से अगोचर होता है । इसीलिए अनेकान्त सिद्धान्त कथंचित् प्ररूपणा से सुसिद्ध है || १० ।।
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