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चतुर्विशति स्तोत्र
पाठ- १५ जीब के घातक कषाय हैं । कषायकर्मों के स्पर्द्धक उदय को प्राप्त हुई कर्दम के फलोन्मुख होने पर उनको रुद्ध करना चाहिए । अर्थात् कषायों के निषेक नष्ट होने पर आत्मा की मलिनता नष्ट होती है । हे जिन! तभी आपका ईश्वर स्वरूप, कैवल्यावस्थाप्राप्त पद दृष्टिगत होना शक्य है । भावार्थ आत्मा के मलिन कार घाली काा हैं | इनके उपरा होते रहने पर परमात्मावस्था का अवलोकन नहीं हो सकता है, है जिन परमेश्वर! आपके दर्शन के लिए कषाय पंक का शमन व क्षय होना आवश्यक है ||१||
हे परमेश्वर! जो व्यक्ति भव्यजन आपकी शुद्धज्ञान कला जन्य आनन्दरस के ज्ञान में अहर्निश लीन रहता तृप्त नहीं होता वही उसे पाता है । जिस प्रकार बालक मधुर रस लोलुपी हुआ ईक्षुदण्ड को चूसने में मग्न हो जाता है । बार-बार चूसने पर अतृप्त ही बना रहता है । विशेष-विशेष माधुर्य प्राप्त करने का ही अभिप्राय बनाये रहता है | इसी प्रकार अन्तरङ्ग से आपके ज्ञानानन्द में भव्य जीव विशेष अधिक-२ आनन्द पाने की तीव्र अभिलाषा रखता है ॥२॥
हे ईश! आपने अपने ज्ञान कृपाण को स्वयं इतना तीक्ष्ण ज्योतिर्मय बना लिया है कि अनन्त पदार्थों के समूह में प्रवृत्त किये जाने पर भी कभी भी, कहीं भी भौंथरा नहीं होता । अभिप्राय यह है कि निरावरण परम विशुद्ध आपकी अनन्त केवलज्ञान ज्योति इतनी तीक्ष्ण ज्योतिर्मय हो गई कि अनन्त त्रिकालवर्ती पदार्थों की अनन्त पर्यायों के साथ एक साथ ज्ञात कर भी तेज निस्तेज नहीं होता । अनन्तलोक भी हों तो भी उन्हें एक क्षण में व्याप्त करने में समर्थ ही रहता है ।।३।।
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