________________
चतुर्विशति स्तोत्र आपके सिद्धान्त से बहिर्भूत परयादियों का आत्मा पर रूप कर्मों से अभिभूत हो रहा है, अत: उनका मलिन रूप ही पर भावों में पड़कर विपरीत ही प्रतिभासित होता है | उनकी दृष्टि में यही स्वरूप दृष्टिगत होता है | परन्तु आएका परमशुद्ध स्वभाव उनको पराभूत कर अपने सहज स्वाभाविक चिच्चमत्कार ज्योतिर्मय, निराकुल, उत्तरोत्तर विकासोन्मुख प्रकाशित होता है | आपके तेजस्वी प्रभाव से सर्वप्रभा व अभिभूत हो जाता है ।। १२ ।।
आत्मा में सर्वव्यापी दर्शनशक्ति विद्यमान रहती है । सर्वज्ञज्ञान से इसी प्रकार प्रतिभासित होता है | भव्यो ! आप विवेकपूर्वक प्रज्ञा का प्रयोग करी तो बस्तु तत्त्व में विधि-निषेध धर्म स्पष्ट अवगत हो जाते हैं । है भगवन् ! आपने जिस रीति से आत्मतत्व को देखा और पहिचाना वैसा ही आगम में निरूपित किया और वह जैसा था वैसा ही निरूपित है । अतः पूर्ण सत्यार्थ और अकाट्य है |॥ १३ ॥
हे प्रभो ! आपमें दृश्य शक्ति दृशिस्वरूपता दृश्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना ही स्वतः सिद्ध है । वस्तु स्वभाव पर की अपेक्षा नहीं करता । यदि परापेक्षरूप स्वभाव माना जायेगा तो स्वभावी के साथ अन्वयरूपता नहीं बनेगी । ऐसा होने पर विषय-विषयी भेद नहीं होगा | अतः दृशि-दर्शन शक्ति स्वयं ही आत्मा में प्रतिभासित होती है तो दृश्य पदार्थों से क्या प्रयोजन । वह दर्शन स्वभाव इतना निर्मल और स्वच्छ होता है कि पर द्रव्य स्वयं अवभासित होते रहते हैं । वह तो स्वतः स्वभाव से तद्रूप से प्रकाशित रहती है । पर द्रव्य रहो या न रहो ।। १४ ।।
हे जिन ! यदि यह दर्शनशक्ति वचन का विषय होती तो सर्वदशी आपका विषय भी होती । परन्तु, आप जो समस्त पदार्थों और उनकी त्रिकालवी पर्यायों को देखते हैं, उसका अनन्तवाँ मात्र वचन द्वारा प्रतिपादन करते हैं | अथवा चंचल चिद् की परि पूर्णता से लबालब भरित होने पर भी हे जिन ! धीर-वीर जनों की दृश्य विरक्त विभूति है । अर्थात् वचनातीत होने पर वैराग्य भरे भव्यों को विरक्ति की ही हेतु होती है ।। १५ ।।
१३८