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चतुर्विशति स्तोत्र परिणमनशील होने से वस्तु में सर्व प्रकार से परिणमन होता है ! जिस प्रकार यह अनित्यधर्म है उसी प्रकार नित्यत्वस्वभाव भी निहित रहता हैं । ये दोनों धर्म अबाध रूप से वस्तु स्वरूप को घटित करते हैं । कूटस्थ नित्य और अनित्यपने से वस्तु के सामान्य - विशेष धर्म सिद्ध नहीं होते, अपितु उसका अभाव ही सिद्ध होता है ! है जिन! आपका अनेकान्त सिद्धान्त ही निर्दोष वस्तु तत्त्व की सिद्धि में समर्थ हैं | व्यवहार व निश्चय ही सिद्धि अन्य प्रकार व्यवस्थित नहीं हो सकती । अतः वस्तु का सद्भाव उभयधर्म लिए हैं ॥ ९ ॥
हे प्रभो! आपके सिद्धान्तानुसार प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्याय दृष्टि से विवेचनीय है । क्यों कि स्वभाव से नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म निष्ठ है । उभय आधार सम्पन्न होकर ही वस्तु स्वभाव की स्थिति और विकास बनता है | आत्मा का स्वभाव चैतन्य है | यह चेतना - ज्ञान - दर्शन स्वरूप से अवस्थित और परिणमनशील भी है । क्यों कि अपने सदृशधर्म से भरा हुआ चित् स्वभाव सर्वत्र हर पर्याय के साथ अन्वयरूप से रहता है |अनित्यत्व धर्मपेक्षा स्वभाव - विभाव पर्यायों में परिणमित होता रहता है । शुद्ध परमात्म दशा में स्वाभाविक षड्गुणी • हानि - वृद्धि से परिणमन होता है, पर निज स्वभाव चेतना सर्वत्र और सर्वदा व्यापकरूप से बना रहता है || १ ॥
आप में विभाव और स्वभाव परिणतियाँ प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रकट प्रकाशित होती हैं । तथाऽपि आप मोहांधकार रूप अज्ञान भरे मिथ्यादृष्टियों को तो सर्वथा परोक्ष ही दृष्टिगत होते हो । यद्यपि आप अपने प्रत्यक्ष ज्ञानादि विभूतियों से परिपूर्ण हो ।ये सान्त-अनन्त वैभव प्रत्यक्षज्ञानियों को दृष्ट हो सकता है इससे शून्य पशु सदृश मिथ्यात्वियों का विषय नहीं होता है । क्योंकि अतीन्द्रिय स्वभाव के परिज्ञान को अतीन्द्रिय ही सर्वज्ञ ज्ञान ही अवलोकन करने में समर्थ हो सकता है || ११ ।।
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