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चतुर्विशति स्तोत्र
महापुरुषों का चित्त विवेक-भेद-विज्ञान से निरंतर खचित रहता है । बार-बार परिणमन करते हुए भी अपनी एकान्तबुद्धि से भरित आत्मस्वरूप ही रहता है । अर्थात् वाह्य पर रूप पदार्थों से भेद रूप होकर भी सर्वत्र निजरूप ही रहता है । आत्मा की अनन्तता रूप स्वभाव को नहीं त्यागती तथा पूर्ण और यथार्थ तत्त्व विवेक नाका परित्या नहीं करती है । यह सम्यक् पुरुषार्थ का ही कार्य है कि जिनेश्वर अशेष विश्व को शाकपात के सदृश समक्ष में ही दृष्टिगत होते रहते हैं । स्पष्ट सारा विश्व दृश्य बन आपकी निर्मल दृशि क्रिया में झलकता रहता है || १६ ।।
यह दृशिशक्ति चन्द्र की ज्योत्स्ना के समान अशेष विश्च को व्याप्त कर प्रसरित रहती है । चन्द्रचन्द्रिका तो अस्थिर व सीमित है परन्तु यह आत्मशक्ति तो अचल और असीम है, तथा स्वभाव से निरन्तर प्रकाशपुञ्ज से युक्त विश्वदर्शी है | इस चिच्चमत्कारी प्रकाश में समस्त जगत स्वयमेव प्रतिबिम्बित होता रहता है । हे प्रभो इस प्रकार की आपकी अद्वितीय कान्ति वा आभा सदैव छिटकती ही रहती है । आपकी वीतराग परिणति होने पर भी अनिच्छा से विश्व प्रकाशित होता रहता है ।। १७ ।।
यह आपकी वीतरागवृत्ति अत्यन्त विशद नाना भावों से भरित समतारस से आयायित हैं । निर्मल आशय के समान सर्व जन प्रिय है । आपके केवलज्ञान रूपी मुखकमल में चारों ओर से सिमटा हुआ अशेष संसार अर्थात् तीनों लोक कवल (ग्रास) सदृश प्रविष्ट हो रहा है । इस प्रकार विस्तार को प्राप्त कर रहा है ।। १८ ।।
___ नाना रूप से चैतन्य का प्रकट रूप, आपके पारमौदारिक दिव्य देह के चतुर्दिक प्रतिबिम्बित हो उसको भी महत्त्वशाली बना देता है । यह दर्शन ज्ञान आभा एक साथ आपके अनुभूत हो रही है | उसी कान्ति में सारा जगत तीनों लोक भी प्रतिभा सम्पन्न हो रहे हैं । अर्थात् अनिच्छा से ही आपकी अनन्त दर्शन व ज्ञानशक्ति स्वभाव से विश्वव्यापिनी हो रही हैं और अशेष