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चतुर्विंशति स्तोत्र
ही समय में वेदन होता है । अनुभव में आते हैं । अतः भिन्न-भिन्न भेदाभेद विवक्षा से भेद में अभेदपना सिद्ध होता ही है ।। ३ ।।
हे भगवन् ! आप में एक साथ अनन्तगुण समाहित हैं । तो भी उपयोग रूप एक ही सत्तारूपता है | क्योंकि सभी शक्तियों का अवभास एकमात्र ज्ञानोपयोग द्वारा ही होता है । वद्यपि सभी अनन्त शक्तियाँ एक उपयोग के ही आश्रय हैं, तथाऽपि सभी अपने-अपने अस्तित्व में स्थित हैं। मिलकर एक रूप नहीं हो जाती । क्योंकि आगम का सैद्धान्तिक वचन है "निराश्रयाः गुणाः" अर्थात् द्रव्य एक के आश्रय रहकर भी सर्वगुण निराश्रय होते हैं । स्वतंत्र अपने ही आश्रय से निवास करते हैं || ४ ||
भव से भवान्तर प्राप्ति का हेतु जड़प कर्म हैं । परन्तु वे आपको भव-भवान्तरों में परिभ्रमण कराकर भी अपने जड़ (अचेतन) स्वभाव में परिणमित नहीं कर सके । कारण आत्मा स्वभाव से ही चेतन द्रव्य है। स्वयं द्रव्य की योग्यता अपने स्वभाव का कभी भी, कदाऽपि परित्याग नहीं कर सकती । स्वभाव व स्वभावी में अक्षुण्ण त्रैकालिक सम्बन्ध रहता है । कोई भी वस्तु अपने वस्तुत्व को पर पदार्थ के संयोग रूप सम्बन्ध से त्याग नहीं करती, क्योंकि पर द्रव्य अन्य की स्वभावशक्ति को अपहरण करने में समर्थ नहीं हो सकता ! हे जिनदेव ! आपने ज्ञान-चेतना को स्व-पर प्रकाशक निरूपित किया है । यह आपका सिद्धान्त अकाट्य व अबाधित है | इसमें कोई भी प्रमाण, युक्ति बाधक नहीं, अपितु साधक ही हैं ।। ५ ।।
हे प्रभो ! आपने चेतन को प्रमाता और जड़ तथा चेतन को प्रमेय निश्चित किया है । इस प्रकार स्व और पर प्रमेय सिद्ध हैं । यह व्यवस्था पूर्णतः अबाधित है | पर रूप अचेतन को ज्ञात कर तथा अपने समाहित होने पर ज्ञान चेतना तद्रूप नहीं होती अर्थात् जड़त्व पने को प्राप्त कदाऽपि नहीं होती है | अपना वैशिष्ट (वैशिष्ट) नहीं तजती । इसी प्रकार जड़ात्मक