________________
चतुर्विंशति स्तोत्र
पाठ १३
स्वच्छ हुयी चिद् स्वरूपता, स्वाभाविक रूप से प्रमार्जित - निर्मल है । स्व पर प्रकाशक इसका लक्षण हैं । लक्ष्य अपने लक्षण से पूर्ण भरित ही रहता है । संसार के समस्त पदार्थों की परम्परा को प्रकाशित करती है । अर्थात् इसकी निर्मल-स्वच्छ दर्पणवत् आभा में अशेष पदार्थ एक साथ अपनी-अपनी अनन्तपर्यायों सहित अवभासमान होते रहते हैं । वह स्वभाव अकृत्रिम है । हे जिनदेव ! वही आभा अंशरूप में आपके पारमौदारिक शरीर में भी प्रकाशमान हो रही हैं । अभिप्राय यह है कि केवलज्ञान रूप दैदीप्यमान आत्म स्वभाव में वही चिदू स्वभाव जो संसारावस्था में कर्ममल भस्म से आच्छादित थी वह प्रकट प्रकाश में झलकने लगती है ।
यह चैतन्य आभा क्षायोपशमिक रूप भाव द्वारा विश्वीय पदार्थों का समूह रूप माला क्रम-क्रम से अवभासित होती थी, परन्तु वहीं प्रकाश ज्योति क्षायिक रूप धारण कर है जिन ! आप में आदि अवसान रहित, नित्य, अचल, उछलती हुयी चैतन्य प्रभा एक साथ मिश्रित विश्व को आलोकित कर रही है । संसारावस्था में क्षायोपशमिक ज्योति आपमें उच्छलित हो रही है। परन्तु निश्चय से आप अपने ही चिच्चमत्कृत ज्योति ही का अवलोकन करते हैं ॥ २ ॥
हे देव ! यही सहभाविनी यह निजभाव स्वरूप मण्डली सतत एक साथ ही स्फुरायमान होती है, इसीलिए अभिन्न है । अर्थात् अनन्त सुख, वीर्य, दर्शन आदि गुण भिन्न होते हुए भी एकाश्रय से एक साथ ही निज-निज कार्य रूप परिणति करते हैं । इनकी परिणति में समय भेद भी नहीं होता क्योंकि प्रदेश भेद नहीं है | आत्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी है, उनमें सर्वत्र सभी गुण समूह एकाकार रूप से परिणमन करते हैं। सभी गुणों का एक साथ एक
१२६