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चतुर्विंशतिस्तोत्र
अचेतन भी शुद्ध चेतना में छाया रूप से झलकते हैं. किन्तु चेतन रूप नहीं होते । यही नहीं सजातीय चेतन भी चेतना के ज्ञेय होकर तदूप नहीं होते, अपितु अपनी-अपनी सत्ता में ही रहते हैं ।। ६ ।।
जड़ से किसी का भी उदय नहीं हो सकता है और जड़ को किसी प्रकार का कष्ट या कष्ट की अनुभूति भी नहीं हो सकती. जो जड़ वेदना है अपने सत्ता के निरुपक नहीं होने के कारण वह अपने आप में असल्य सिद्ध हो जाता है । यदि वेदना की अनुभूति हो रही हैं तो वह वेदना जड़ वेदना नही है | ( अर्थात् चैतन्य विशिष्ट वेदना होगी ) ॥ ७ ॥
सुख दुख इत्यादि को अनुभव करने वाले आत्मा में जड़ का आपादन ( निरूपण) सम्भव नहीं किन्तु निरन्तर सत्य स्वरूप में रहने वाले आत्मा के आकृति को ग्रहण करने के बिना अनुभव भी सम्भव नहीं है, किन्तु यहा कदा अपनी अनुभूति का अभिव्यंजक नहीं होने के मात्र से उस आत्मा को हम मन्दबुद्धि भी नहीं कह सकते हैं ॥ ८ ॥
हे जिन ! आपने स्पष्ट सिद्धान्त दर्शाया है, जो जन स्वयं को नहीं ज्ञात करता है वह पर का ज्ञाता भी नहीं हो सकता । जिस प्रकार अज्ञानी प्राणी (मनुष्य) आसक्तिवश अपने से विरत के साथ भी प्रेम करता है और नष्ट होता है । अर्थात् व्यर्थ पुरुषार्थ होता है । यदि नेत्र बन्द कर कोई मूर्ख दौड़ता हैं तो पतन के गर्त में ही पड़ता है । अथवा समझिये कि हस्तिनी जो नकली रहती है प्रेमांध हुआ जड़बुद्धि गज उसके प्रति प्रेमांध हुआ दौड़कर जाता है तो स्वयं ही गर्त में पड़कर नष्ट होता है-दुःखी होता है । इसी प्रकार जो स्वयं को नहीं जानता है, वह परका ज्ञाता किस ज्ञाता किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता । अपितु स्वयं ही जड़त्व को प्राप्त होगा । अतः आत्मा स्व पर प्रकाशक हैं यही आपका सिद्धान्त यर्थात् व निर्बाध है, यह सिद्ध होता है ॥ ९ ॥
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