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= सर्विशति स्तोत्र तो भी आपकी चित्-चैतन्य मय ज्ञानज्योति, उत्कृष्टपने से, उमञ्चल, निर्मल प्रकाशित रहती है । अभिप्राय यह है कि अनन्तज्ञान में लोकालोक अनन्तपर्यायों सहित एक साथ एक ही समय में अवभासित हो गया तो क्या अब ज्ञान निष्क्रिय हो गया? नहीं वह तो ज्यों का त्यों उच्चतम रूप से प्रकाशित ही रहता है ।। २ ।।
अर्थ- हे संभवजिन! आपकी परमविशुद्धात्मा के परमोज्ज्वल ज्ञान में वस्तु एकान्तरूप से अवभासित नहीं होती, तथा अनेकान्तरूपता भी एकान्तपने से प्रतिविम्बित नहीं होती । अपितु एक साथ उभयरूपता लिए ही प्रतिभासित होती है । इससे स्पष्ट है कि अशेष पदार्थ एकानेक, नित्या-नित्य आदि अनेक धर्मात्मक (स्वभाव वाले) ही हैं । इसीलिए आपने अपेक्षाकृत सिद्धान्त द्वारा विरोधी धर्मों को भी एक ही पदार्थ में एक साथ अविरोध रूप से सिद्ध किया है । यह गौण मुख्य व्यवस्था आप ही के सिद्धान्त में संभावित है । अतः आपका "संभव जिन" यह नाम यथार्थ सार्थक है । आप ही अशेष विश्व के यथार्थ स्वरूप के प्रतिभासक-प्रदर्शित करने वाले हैं ।। ३ ।।
अर्थ-हे देव, जो कुछ संसार में भास्यमान-प्रतिविम्बित होने योग्य है, वही आपके ज्ञान में प्रतिभासित होता है, जो भास्य नहीं हैं वह प्रतिभासित भी नहीं होता, तो भी जो है जैसा वैसा ही सत् रूप झलकता है इसी से नम् समास में जो नहीं है अर्थात् जो भासित नहीं हो उसे अभाति कहा जाता है यथा "न ब्राह्मणः अब्राह्मणः" जो ब्राह्मण नहीं है वह अन्य कोई है, अर्थात् सत् का सर्वथा नाश आपके सिद्धान्त में नहीं है | जो प्रकाश्य ही प्रकाशित होने योग्य है वह उसी रूप से प्रकाशित होता है जो भास्य नहीं वह अभास्य है, अभासि भी तो किसी सत्ता का ही ज्ञापन कराता है । अस्तु, निरन्वय नाश आपके सिद्धान्त में नहीं है । हे भगवन् ! आपने इस प्रकार लोकालोक के पदार्थों को ज्यों का त्यो प्रकाशित कर दिया ।सर्व हितैषी, आपका सर्वप्रिय
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