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__ स्तुविशति स्तोत्र
नमः परमात्मने नमोऽनेकान्ताय शुद्धपरमात्मता एवं उनके अनेकान्त सिद्धान्त को नमस्कार किया है ।
अर्थ-हे भगवन् आदिनाथ स्वामी मैं ( आचार्य महावीर कीर्ति आपकी पूजा करता हूँ | क्यों? क्यों कि आप स्वायंभुव हैं | अर्थात् प्रत्येक बुद्ध हैं, समस्त सृष्टि निर्माता कर्मयुग के प्रवर्तक हुए । अतएव आपको स्वयम्भू कहते हैं क्योंकि बिना शिक्षक और शिक्षालय के ही ज्ञाता हुए । आपका ज्ञान आपकी वय, त्याग, तप तेज के साथ स्वयं वृद्धिंगत होता हुआ पूर्णता को प्राप्त हुआ - केवल ज्ञान में परिणत हो गया । यह पूर्ण स्वच्छ-निर्मल-संशय-विपर्य-अनध्यवसाय रहित है । अविनाशी एवं एकरूप है । कर्म युग के प्रारम्भ में आपने असि मसि आदि षट् कर्मों का उपदेश दे जीवनोपाय दर्शाया । कैवल्य प्राप्त कर उभय धर्म का स्वरूप तथा अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप प्रतिपादित किया । इस प्रकार का श्रेष्ठतम ज्ञाता अन्य नहीं हो सकता जो वस्तु के अन्दर समाहित अनन्त धर्मों को अवगत कर सके । अस्तु आप ही पूज्य हैं । मैं आपही की पूजा करता हूँ ।। १ ।।
अर्थ- भो अजितनाथ! आप ही तत्त्वों मापक वा ज्ञायक हो, क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, आएका ज्ञान भी अनन्त है । स्वयं के मापक भी आप ही हो, कारण जो अनेकान्तमयी निजात्मा की असीमता को माप सकता है वही पर को भी । फलतः आप मेय-मापने योग्य हो । उस स्व-पर के मापक होने से उस प्रमाणमाप का फल भी आप ही को प्राप्त है । अत: ईशत्वपना आपको ही सिद्ध है । इस प्रकार प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति का फल निश्चियनयापेक्षा आप ही में सन्निहित है, व्यवहारनयापेक्षा अशेष विश्व के ज्ञाता हो । आपके ज्ञान-प्रमाण से परे कुछ भी नहीं रहा अतः आप 'अजित' सार्थक नाम युक्त हैं । केवलज्ञान से यद्यपि कुछ भी बाह्य ज्ञेय नहीं है