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चतुर्विंशतिस्तोत्र
होना स्वाभाविक है | सर्वजनों के आनन्द कर्ता होने से आपका " अभिनन्दन" नाम सार्थक है आप सर्व अभिनन्दनीय व अभिवन्दनीय हैं ।। ४ ।।
अर्थ :- लोक में सूर्य को प्रकाशक माना जाता है । परन्तु उसके अभिमुख समक्ष जो कुछ आता है उसी को वह अवलोकित करता है । अर्थात रवि रश्मियाँ सीमित पदार्थों को ही दर्शाती हैं । परन्तु हे प्रभो ! आपकी असीम ज्ञानज्योति सहज स्वाभाविक सतत विद्यमान रहकर प्रत्यक्ष व परोक्ष एकरूप व अनेकरूप सभी को प्रकाशित करती है। चित्र-विचित्र भी पदार्थ समानरूप से झलकते हैं। आपकी ज्ञायकदृष्टि त्रिकालवर्ती पदार्थों को अर्थात् अभिमुख व अनभिमुख समस्त पदार्थों को स्पष्ट विषय करती है अपने प्रमाण का प्रमेय बनाती है । यह सुबुद्धिकौशल आप में ही शोभित है अतः आपका सुमति नाम पूर्णतः सार्थक है | अलौकिकता यह है कि नाना धर्मात्मक-चित्र-विचित्र विषयों को विषय कर भी आपका ज्ञान चित्रित नहीं होता वह तो पूर्ण रूप निर्मल सदा एक स्वरूप ही रहता है । अतः सुबुद्ध सुमतिनाथ यर्थाथ ही है ॥ ५ ॥
अर्थ :- लोक व्यवहार में एक पदार्थ प्रकाशक होता है तो अन्यप्रकाश्य अर्थात् प्रकाशित होने वाला माना जाता है। जो प्रकाशक है वह वस्तु को प्रकाशित करने में समर्थ होता है और प्रकाश्य रूप है वह प्रकाशित होता है । किन्तु, हे प्रद्मप्रभ देव, अद्भुत चर्चा है कि आप न प्रकाशक है और न प्रकाश्य ही है अपितु स्वयं ही उभय रूप हो । प्रकाशक तो इसीलिए नहीं कि आप वीतरागी हैं स्वयं अपने में लीन हैं पर प्रकाशक क्यों बनें । प्रकाश्य इसलिए नहीं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान के आए विषय नहीं हो सकते । अस्तु, आप स्वयं उत्कट प्रकाशपुञ्ज हैं । स्वाभाविक आपके ज्ञानप्रकाश में बाह्य प्रकाश्यरूप जड़-चेतन सभी पदार्थ झकझक् झलकते रहते हैं आप तटस्थ रहते हैं । वस्तु स्वभाव यहीं है । सूर्य अपनी प्रकाश शक्ति से आकाश में उदीयमान होता है पद्म भूमंडल के सरोवरों में विकसित