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चतुर्विंशतिस्तोत्र
निर्निमित्त, स्वाभाविक, स्वस्वभाव जनित परिपूर्ण वैभव सम्पन्न ही
हो ।। २२ ।।
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हे वीतरागजिन ! आप एकान्त परिपूर्ण, स्वस्वभाव से अविचलित पूर्ण ज्ञान ज्योति पुञ्ज सम्पन्न, नित्य प्रवाहित एक चैतन्य धारा से सम्पन्न प्रतिभासित होते हो । अतः भेदरूपता छिपगई है - गौणरूप हो गई । मुख्यतः विवक्षित केवलज्ञान प्रकाश मात्र की अपूर्व प्रभा कान्तिमान हो रही है । इस प्रकार का चमत्कार स्वयं को देवत्व के अहंकार से भरे शंकर (महादेव) में नहीं है और न ही ब्रह्मा में भी है । अतः यथार्थता यह है कि आप ही महादेव हैं और आप ही ब्रह्मा हैं || २३ |
तत्त्व स्वरूप हो तद्भाव से तत्त्व स्वरूप ही प्रतिभासित होते हो । चैतन्य भाव की मुख्यता से आप चिन्मय स्वरूप प्रकाशित होते हो यह भेद विवक्षा में इस प्रकार दृष्टिगत होते हो । परन्तु अभेद दृष्टि से न तत्त्वरूप दृष्टिगत होते हैं और न चिद् रूप ही परिलक्षित हो प्रकाशित होते हैं । हे विभो ! आप तो सदैव, एक रूप से चिदानन्द चैतन्य पुञ्ज स्वरूप ही प्रतिभासित होते हो ।। २४ ।।
यह इस अध्याय का अन्तिम श्लोक हैं । इसमें प. पू. श्री. १०८ मुनिकुअर समाधि सम्राट आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश, उद्भट विद्वान आचार्य शिरोमणि श्री महावीर कीर्ति जी अपने को योगीश्वर बनने की प्रार्थना कर रहे हैं । हे जिन ! शुद्ध द्रव्य, भाव और नोकर्म कालिमा से रहित, नाना विषय-भोगों की आकुलता से विरहित, निजस्वभावकी अमिट कान्ति से पूर्ण स्वाधीन, आभा जो नित्य ही अबाधरूप से स्थायी है उसी के अनुरूप अवस्था प्राप्ति की उत्कट भावना से सहित मैं भी योगीश्वर हो जाऊँ। इसी भावना के साथ यह आपका गुणगान किया है । अतः मैं भी आप सदृश आत्मीय स्वभाव को प्रत्यक्ष प्रकट करूँ ॥ २५ ॥
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