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समिति स्तोत्र
हे देव ! पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से पूर्व और अपूर्व क्रमिक पर्यायों के अदल-बदल होने पर एकत्वभाव को लिए हुए भी आत्मा अनेक रूपता को प्राप्त करती है । परन्तु द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से परिशीलन करने पर वही नित्य उदित (प्रकट रूप) होती हुयी एक अखण्ड ही दृष्टिगत होती है | क्योंकि कालदोष से जन्य श्री उस समय प्रतिभासित नहीं होती । अपितु विभागरहित शुद्ध एक रूप ही झलकती है | अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान, दर्शन रूप परिणत आत्मा कालकृत क्रम के कारण अशुद्ध अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीयुत भेद रूप से परिणमती और क्षायिकरूप पूर्ण ज्ञान, दर्शनयुत होने पर अपने अखण्ड वैभव सम्पन्न हो जाती है । जान, दर्शन, सुख, वीर्य रूप सम्पदा एक स्वभाव से झलकती है ।। २० ।।
भो प्रभो ! आदि, मध्य, अन्त रूप काल भेदापेक्षा आप अनेक स्वभावों रूप प्रकट प्रकाशित होते हो । परन्तु भेददृष्टि रहित एक द्रव्यदृष्टि से निरीक्षण करने पर क्षायोपशमिक अवस्था में विखरी गुण सम्पदा एक रूप में समन्वित हो पिण्डरूप से एक अविचल रूप में प्रवाहित होती हुयी चमत्कृत होती है । एक धारा में गतिशील होती हुयी अपनी शुद्धावस्था में अनन्तगुणों को एकपिण्ड रूप में प्रकाशित होती है ॥ २१ ॥
चित् चैतन्य प्रकाश, कर्ता, कर्म आदि कारक भेदों से निमग्न दशा में कालभेद की अपेक्षा एक-एक मुणरूप प्रवृत्त होने से आकुलता भरित होती है । पर रूप कारकभेद दशा में सभी गुण एक देश से भेदरूप ही प्रकाशित होते हैं । इस अपूर्ण दशा में आकलुता-विकल्पजाल रूप आत्म लक्ष्मी प्रतीत होती है । परन्तु विकलता के हेतुभूत यातिया कर्मों के अभाव होने से आप अर्हत दशा प्राप्त अपनी शुद्ध चैतन्यावस्था में एक जाज्वल्यमान, आकुलता विहीन, परिपूर्ण होते हुए निष्कम्प, अखण्ड लक्ष्मी सम्पन्न ही हो । अपूर्ण दशा पूर्णता के प्रयास से आकुल-व्याकुल होती है, परन्तु वही अपने स्वरूप में परिपूर्ण हो जाती है तो निराकुल सुख सम्पदा निमग्न नित्य उदय को प्राप्त हो जाती है | यह मुक्ति लक्ष्मी एक, भेद रहित अविचल हो जाती है | आप
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