________________
__चतुर्विंशति स्तोत्र
हे परमेश्वर ! आपकी स्वानुभूति सतत स्फुरायमान होती हुयी अपनी ही अनन्तमहिमा, तेजस्विता में स्थित रहती है । यह अपने में एकत्व को लिए स्पष्टरूप में सदा उदीयमान प्रकट रहती है | अपने व्यापक और चैतन्यचमत्कार ज्योति में यह अशेष विश्व (नीनों लोकों के के अशेष पदार्थों को अनेक द्रव्य-गुण-पर्यायों युत झलकाती है । अर्थात् इसमें वे पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में स्थित रहते हुए ही प्रकाशित होते हैं और यह भी स्वयं अपने में अपने ही निर्मल स्वभाव में अवस्थित रह कर ही प्रवर्तित रहती है ।। १७ ||
___ हे जिन ! आपके सिद्धान्त में कर्ता, कर्म, क्रिया, कारकादि सर्व कल्मष है । आत्मा को मलिन करने वाली भेद दृष्टि के उत्पादक हैं । स्योंकि इनकी प्रवृत्ति का मूल कारण कर्तृत्वबुद्धि है. जो राग-द्वेष की हेतु है । आपतो
जगत की सम्पूर्ण क्रिया-कलापों की संगति से सर्वथा पराङ् मुख हो चुके ... हैं । आप में तो अब केवल ज्ञान रूपी उज्ज्वलतम ज्योति ही प्रकाशित हो
रही है । एकत्व में भेद का प्रवेश हो ही नहीं सकता । वहाँ तो स्वतंत्र एकरूप ही प्रकाश का अवकाश रहता है ॥ १८ ॥
आत्मा के शुद्ध एकत्वलिए अखण्ड स्वरूप में समस्त कारक अभेदरूप में ही स्थित होते हैं । यथा आत्मा स्वयं, आत्मा को, आत्मा के ही द्वारा आत्मा के लिए अपने ही आत्मस्वभाव से, अपने में ही प्रसन्न भाव से अपने ही ज्ञान स्वभाव का दर्शन होता है । अर्थात् आप ही आत्मा अपना ही दर्शन करती है । अपनी ही अभिन्न दृष्टि को लिए अपने ही समाहित रहती है । हे ईश ! कारकादि तो यहाँ दृष्टिगत ही नहीं होते । वे तो न जाने कहाँ अदृश्य हो जाते हैं || १९ ।।